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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 33
    ऋषिः - प्रस्कण्व ऋषिः देवता - विद्वान् देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    दैव्या॑वध्वर्यू॒ऽआ ग॑त॒ꣳ रथे॑न॒ सूर्य॑त्वचा।मध्वा॑ य॒ज्ञꣳ सम॑ञ्जाथे।तं प्रत्नथा॑। अ॒यं वेनः। चित्रं दे॒वाना॑म्॥३३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दैव्यौ॑। अ॒ध्व॒र्यू॒ऽइत्य॑ध्वर्यू। आ। ग॒त॒म्। रथे॑न। सूर्य॑त्व॒चेति॒ सूर्य॑त्वचा ॥ मध्वा॑। य॒ज्ञम्। सम्। अ॒ञ्जा॒थे॒ऽ इत्य॑ञ्जाथे ॥३३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दैव्यावध्वर्यूऽआगतँ रथेन सूर्यत्वचा । मध्वा यज्ञँ समञ्जाथे । तम्प्रत्नथा । अयँवेनश्चित्रन्देवानाम्॥


    स्वर रहित पद पाठ

    दैव्यौ। अध्वर्यूऽइत्यध्वर्यू। आ। गतम्। रथेन। सूर्यत्वचेति सूर्यत्वचा॥ मध्वा। यज्ञम्। सम्। अञ्जाथेऽ इत्यञ्जाथे॥३३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 33
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    पदार्थ -
    हे (दैव्यौ) अच्छे उत्तम विद्वानों वा गुणों में प्रवीण (अध्वर्यू) अपने अहिंसारूप यज्ञ को चाहते हुए दो पुरुषो! आप (सूर्यत्वचा) जिसका बाहरी आवरण सूर्य के तुल्य प्रकाशमान ऐसे (रथेन) चलनेवाले विमानादि यान से (आ, गतम्) आइये और (मध्वा) कोमल सामग्री से (यज्ञम्) यात्रा संग्राम वा हवनरूप यज्ञ को (सम्, अञ्जाथे) सम्यक् प्रकट करो॥३३॥

    भावार्थ - राजादि मनुष्यों को चाहिये कि सूर्य के प्रकाश के तुल्य विमानादि यान, संग्राम वाहनादि को उत्पन्न कर यात्रादि अनेक व्यवहारों को सिद्ध किया करें॥३३॥

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