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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 66
    ऋषिः - नृमेध ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - भुरिगनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    त्वमि॑न्द्र॒ प्रतू॑र्त्तिष्व॒भि विश्वा॑ऽअसि॒ स्पृधः॑।अ॒श॒स्ति॒हा ज॑नि॒ता वि॑श्व॒तूर॑सि॒ त्वं तू॑र्य्य तरुष्य॒तः॥६६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम्। इ॒न्द्र॒। प्रतू॑र्त्ति॒ष्विति॑ प्रऽतू॑र्त्तिषु। अ॒भि। विश्वाः॑। अ॒सि॒। स्पृधः॑ ॥ अ॒श॒स्ति॒हेत्य॑ऽशस्ति॒हा। ज॒नि॒ता। विश्व॒तूरिति॑ विश्व॒ऽतूः। अ॒सि॒। त्वम्। तू॒र्य॒। त॒रु॒ष्य॒तः ॥६६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वमिन्द्र प्रतूर्तिष्वभि विश्वा असि स्पृधः । अशस्तिहा जनिता विश्वतूरसि त्वन्तूर्य तरुष्यतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। इन्द्र। प्रतूर्त्तिष्विति प्रऽतूर्त्तिषु। अभि। विश्वाः। असि। स्पृधः॥ अशस्तिहेत्यऽशस्तिहा। जनिता। विश्वतूरिति विश्वऽतूः। असि। त्वम्। तूर्य। तरुष्यतः॥६६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 66
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    पदार्थ -
    हे (इन्द्र) उत्तम ऐश्वर्य देनेवाले राजन्! जिस कारण (त्वम्) आप (प्रतूर्तिषु) जिसमें मारना होता उन संग्रामों में (विश्वाः) शुत्रुओं की सब (स्पृधः) ईर्ष्यायुक्त सेनाओं को (अभि, असि) तिरस्कार करते हो तथा (अशस्तिहा) जिनकी कोई प्रशंसा न करे, उन दुष्टों के हन्ता (जनिता) सुखों के उत्पन्न करनेहारे (विश्वतूः) सब शत्रुओं को मारनेवाले हुए (त्वम्) आप विजयवाले (असि) हो, इससे (तरुष्यतः) हनन करनेवाले शत्रुओं को (तूर्य्य) मारिये॥६६॥

    भावार्थ - जो राजपुरुष अधर्म्मयुक्त कर्मों के निवर्त्तक, सुखों के उत्पादक और युद्धविद्या में कुशल हों, वे शत्रुओं को जीतने को समर्थ हों॥६६॥

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