Loading...

मन्त्र चुनें

  • यजुर्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 65
    ऋषिः - वामदेव ऋषिः देवता - इन्द्रो देवता छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
    6

    आ तू न॑ऽइन्द्र वृत्रहन्न॒स्माक॑म॒र्द्धमा ग॑हि।म॒हान् म॒हीभि॑रू॒तिभिः॑॥६५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। तु। नः॒। इ॒न्द्र॒। वृ॒त्र॒ह॒न्निति॑ वृत्रऽहन्। अ॒स्माक॑म्। अ॒र्द्धम्। आ। ग॒हि॒। म॒हान्। म॒हीभिः॑। ऊ॒तिभि॒रित्यू॒तिऽभिः॑ ॥६५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ तू नऽइन्द्र वृत्रहन्नस्माकमर्धमा गहि । महान्महीभिरूतिभिः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। तु। नः। इन्द्र। वृत्रहन्निति वृत्रऽहन्। अस्माकम्। अर्द्धम्। आ। गहि। महान्। महीभिः। ऊतिभिरित्यूतिऽभिः॥६५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 65
    Acknowledgment

    पदार्थ -
    हे (वृत्रहन्) शत्रुओं के विनाशक (इन्द्र) उत्तम ऐश्वर्यवाले राजन्! आप (अस्माकम्) हम लोगों की (अर्द्धम्) वृद्धि उन्नति को (आ, गहि) अच्छे प्रकार प्राप्त हूजिये और (महान्) अत्यन्त पूजनीय हुए (महीभिः) बड़ी (ऊतिभिः) रक्षादि क्रियाओं से (नः) हमको (तु, आ, दधनत्) शीघ्र अच्छे प्रकार पुष्ट कीजिये॥६५॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में पूर्व मन्त्र से (दधनत्) इस पद की अनुवृति आती है। हे राजन्! जैसे आप हमारे रक्षक और वर्द्धक हैं, वैसे हम लोग भी आपको बढ़ावें, सब हम लोग प्रीति से मिल के दुष्टों को निवृत्त करके श्रेष्ठों को धनाढ्य करें॥६५॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top