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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 38
    ऋषिः - कुत्स ऋषिः देवता - सूर्यो देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    तन्मि॒त्रस्य॒ वरु॑णस्याभि॒चक्षे॒ सूर्य्यो॑ रू॒पं कृ॑णुते॒ द्योरु॒पस्थे॑। अ॒न॒न्तम॒न्यद्रुश॑दस्य॒ पाजः॑ कृ॒ष्णम॒न्यद्ध॒रितः॒ सं भ॑रन्ति॥३८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तत्। मि॒त्रस्य॑। वरु॑णस्य। अ॒भि॒चक्ष॒ऽइत्य॑भि॒चक्षे॑। सूर्य्यः॑। रू॒पम्। कृ॒णु॒ते॒। द्योः। उ॒पस्थ॒ऽइत्यु॒पस्थे॑ ॥ अ॒न॒न्तम्। अ॒न्यत्। रुश॑त्। अ॒स्य॒। पाजः॑। कृ॒ष्णम्। अ॒न्यत्। ह॒रितः॑। सम्। भ॒र॒न्ति॒ ॥३८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तन्मित्रस्य वरुणस्याभिचक्षे सूर्या रूपङ्कृणुते द्योरुपस्थे । अनन्तमन्यद्रुशदस्य पाजः कृष्णमन्यद्धरितः सम्भरन्ति ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    तत्। मित्रस्य। वरुणस्य। अभिचक्षऽइत्यभिचक्षे। सूर्य्यः। रूपम्। कृणुते। द्योः। उपस्थऽइत्युपस्थे॥ अनन्तम्। अन्यत्। रुशत्। अस्य। पाजः। कृष्णम्। अन्यत्। हरितः। सम्। भरन्ति॥३८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 38
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! (द्योः) प्रकाश के (उपस्थे) निकट वर्त्तमान अर्थात् अन्धकार से पृथक् (सूर्यः) चराचर का आत्मा (मित्रस्य) प्राण और (वरुणस्य) उदान के (तत्) उस (रूपम्) रूप को (कृणुते) रचता है जिससे मनुष्य (अभिचक्षे) देखता जानता है (अस्य) इस परमात्मा का (रुशत्) शुद्धस्वरूप और (पाजः) बल (अनन्तम्) अपरिमित (अन्यत्) भिन्न है और (अन्यत्) (कृष्णम्) अविद्यादि मलीन गुणवाले भिन्न जगत् को (हरितः) दिशा (सम्, भरन्ति) धारण करती हैं॥३८॥

    भावार्थ - हे मनुष्यो! जो अनन्त ब्रह्म वह प्रकृति और जीवों से भिन्न है। ऐसे ही प्रकृतिरूप कारण विभु है, उससे जो-जो उत्पन्न होता, वह वह समय पाकर ईश्वर के नियम से नष्ट हो जाता है, जैसे जीव प्राण, उदान से सब व्यवहारों को सिद्ध करते, वैसे ईश्वर अपने अनन्त सामर्थ्य से इस जगत् के उत्पत्ति, स्थिति, प्रलयों को करता है॥३८॥

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