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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 4
    ऋषिः - विश्वरूप ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    यु॒क्ष्वा हि दे॑व॒हूत॑माँ॒२ऽअश्वाँ॑२ऽअग्ने र॒थीरि॑व।नि होता॑ पू॒र्व्यः स॑दः॥४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒क्ष्व। हि। दे॒व॒हूत॑मा॒निति॑ देव॒ऽहूत॑मान्। अश्वा॑न्। अ॒ग्ने॒। र॒थीरि॒वेति॑ र॒थीःऽइ॑व ॥ नि। होता॑। पू॒र्व्यः। स॒दः॒ ॥४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युक्ष्वा हि देवहूतमाँऽअश्वाँ अग्ने रथीरिव । नि होता पूर्व्यः सदः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    युक्ष्व। हि। देवहूतमानिति देवऽहूतमान्। अश्वान्। अग्ने। रथीरिवेति रथीःऽइव॥ नि। होता। पूर्व्यः। सदः॥४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 4
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    पदार्थ -
    हे (अग्ने) विद्वन्! आप (रथीरिव) सारथि के समान (देवहूतमान्) विद्वानों से अत्यन्त स्तुति किये हुए (अश्वान्) शीघ्रगामी अग्नि आदि वा घोड़ों को (युक्ष्व) युक्त कीजिये (पूर्व्यः) पूर्वज विद्वानों से विद्या को प्राप्त (होता) ग्रहण करते हुए (हि) निश्चय कर (नि, सदः) स्थिर हूजिये॥४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जैसे उत्तम शिक्षित सारथि घोड़ों से अनेक कार्य्यों को सिद्ध करता है, वैसे विद्वान् जन अग्नि आदि से अनेक कार्यों को सिद्ध करें॥४॥

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