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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 34
    ऋषिः - अगस्त्य ऋषिः देवता - सविता देवता छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
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    आ न॒ऽइडा॑भिर्वि॒दथे॑ सुश॒स्ति वि॒श्वान॑रः सवि॒ता दे॒वऽए॑तु।अपि॒ यथा॑ युवानो॒ मत्स॑था नो॒ विश्वं॒ जग॑दभिपि॒त्वे म॑नी॒षा॥३४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। नः॒। इडा॑भिः। वि॒दथे॑। सु॒श॒स्तीति॑ सुऽश॒स्ति। वि॒श्वान॑रः। स॒वि॒ता। दे॒वः। ए॒तु॒ ॥ अपि॑। यथा॑। यु॒वा॒नः॒। मत्स॑थ। नः॒। विश्व॑म्। जग॑त्। अ॒भि॒पि॒त्व इत्य॑भिऽपि॒त्वे। म॒नी॒षा ॥३४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ नऽइडाभिर्विदथे सुशस्ति विश्वानरः सविता देवऽएतु । अपि यथा युवानो मत्सथा नो विश्वञ्जगदभिपित्वे मनीषा ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। नः। इडाभिः। विदथे। सुशस्तीति सुऽशस्ति। विश्वानरः। सविता। देवः। एतु॥ अपि। यथा। युवानः। मत्सथ। नः। विश्वम्। जगत्। अभिपित्व इत्यभिऽपित्वे। मनीषा॥३४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 34
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    पदार्थ -
    हे (युवानः) ज्वान ब्रह्मचर्य के साथ विद्या पढ़े हुए उपदेष्टा लोगो! (यथा) जैसे (विश्वानरः) सबका नायक (देवः) उत्तम गुणोंवाला (सविता) सूर्य्य के तुल्य प्रकाशमान विद्वान् (इडाभिः) वाणियों से (विदथे) जताने योग्य व्यवहार में (सुशस्ति) सुन्दर प्रशंसायुक्त (नः) हमारे (विश्वम्) सब (जगत्) चेतन पुत्र गौ आदि को (आ, एतु) अच्छे प्रकार होवे, वैसे (अभिपित्वे) सम्मुख जाने में तुम लोग (मत्सथ) आनन्दित हूजिये जो (नः) हमारी (मनीषा) बुद्धि है, उसको (अपि) भी शुद्ध कीजिये॥३४॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। जो सूर्य के तुल्य विद्या से प्रकाशस्वरूप, शरीर और आत्मा से युवावस्था को प्राप्त, सुशिक्षित, जितेन्द्रिय, सुशील होते हैं, वे सबको उपदेश से ज्ञान कराने को समर्थ होते हैं॥३४॥

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