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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 86
    ऋषिः - तापस ऋषिः देवता - इन्द्रवायू देवते छन्दः - निचृद् बृहती स्वरः - मध्यमः
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    इ॒न्द्र॒वा॒यू सु॑स॒न्दृशा॑ सु॒हवे॒ह ह॑वामहे।यथा॑ नः॒ सर्व॒ऽइज्जनो॑ऽनमी॒वः स॒ङ्गमे॑ सु॒मना॒ऽअस॑त्॥८६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒न्द्र॒वा॒यू इती॑न्द्रऽवा॒यू। सु॒स॒न्दृशेति॑ सुऽस॒न्दृशा॑। सु॒हवेति॑ सु॒ऽहवा॑। इ॒ह। ह॒वा॒म॒हे॒ ॥ यथा॑। नः॒। सर्वः॑। इत्। जनः॑। अ॒न॒मी॒वः। स॒ङ्गम॒ इति॑ स॒म्ऽगमे॑। सु॒मना॒ इति॑ सु॒ऽमनाः॑। अस॑त् ॥८६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रवायू सुसन्दृशा सुहवेह हवामहे । यथा नः सर्व इज्जनो नमीवः सङ्गमे सुमनाऽअसत्॥


    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रवायू इतीन्द्रऽवायू। सुसन्दृशेति सुऽसन्दृशा। सुहवेति सुऽहवा। इह। हवामहे॥ यथा। नः। सर्वः। इत्। जनः। अनमीवः। सङ्गम इति सम्ऽगमे। सुमना इति सुऽमनाः। असत्॥८६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 86
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    पदार्थ -
    हम लोग जिन (सुसन्दृशा) सुन्दर प्रकार से सम्यक् देखनेवाले (सुहवा) सुन्दर बुलाने योग्य (इन्द्रवायू) राजप्रजाजनों को (इह) इस जगत् में (हवामहे) स्वीकार करते हैं (यथा) जैसे (सङ्गमे) संग्राम वा समागम में (नः) हमारे (सर्वः, इत्) सभी (जनः) मनुष्य (अनमीवः) नीरोग (सुमनाः) प्रसन्न चित्तवाले (असत्) होवें, वैसे किया करें॥८६॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। वैसे ही राजप्रजा-पुरुष प्रयत्न करें, जैसे सब मनुष्य आदि प्राणी नीरोग प्रसन्न मनवाले होकर पुरुषार्थी हों॥८६॥

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