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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 94
    ऋषिः - मनुर्ऋषिः देवता - विश्वेदेवा देवताः छन्दः - पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    दे॒वासो॒ हि ष्मा॒ मन॑वे॒ सम॑न्यवो॒ विश्वे॑ सा॒कꣳसरा॑तयः।ते नो॑ऽअ॒द्य ते अ॑प॒रं तु॒चे तु नो॒ भव॑न्तु वरिवो॒विदः॑॥९४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वासः॑। हि॑। स्म॒। मन॑वे। सम॑न्यव॒ इति॒ सऽम॑न्यवः। विश्वे॑। सा॒कम्। सरा॑तय॒ इति॒ सऽरा॑तयः ॥ ते। नः॒। अ॒द्य। ते। अ॒प॒रम्। तु॒चे। तु। नः॒। भव॑न्तु। व॒रि॒वो॒विद॒ इति॑ वरिवः॒ऽविदः॑ ॥९४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवासो हि ष्मा मनवे समन्यवो विश्वे साकँ सरातयः । ते नोऽअद्य तेऽअपरन्तुचे तु नो भवन्तु वरिवोविदः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    देवासः। हि। स्म। मनवे। समन्यव इति सऽमन्यवः। विश्वे। साकम्। सरातय इति सऽरातयः॥ ते। नः। अद्य। ते। अपरम्। तुचे। तु। नः। भवन्तु। वरिवोविद इति वरिवःऽविदः॥९४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 94
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जो (सरातयः) बराबर दाता (समन्यवः) तुल्य क्रोधवाले (विश्वे) सब (देवासः) विद्वान् लोग (साकम्) साथ मिल के (अद्य) आज (नः) हमारे (मनवे) मनुष्य के लिये (स्म) प्रसिद्ध (वरिवोविदः) सत्कार के जानने वा धन के प्राप्त करानेवाले (भवन्तु) हों (तु) और (ते) वे (अपरम्) भविष्यत् काल में (नः) हमारे (तुचे) पुत्र-पौत्रादि सन्तान के अर्थ हमारे लिये सत्कार के जानने वा धन के प्राप्त करानेवाले हों (ते, हि) वे ही तुम लोगों के लिये भी सत्कार के जानने वा धन के प्राप्त करानेवाले हों॥९४॥

    भावार्थ - जो मनुष्य एक दूसरे के लिये सुख देवें, जो मिल कर दुष्टों पर क्रोध करें, वे पुत्र-पौत्रवाले हो के मनुष्यों के सुख की उन्नति के लिये समर्थ विद्वान् होने योग्य होते हैं॥९४॥

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