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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 57
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - मित्रावरुणौ देवते छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    मि॒त्रꣳ हु॑वे पू॒तद॑क्षं॒ वरु॑णं च रि॒शाद॑सम्।धियं॑ घृ॒ताची॒ साध॑न्ता॥५७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्रम्। हु॒वे॒। पू॒तद॑क्ष॒मिति॑ पू॒तऽद॑क्षम्। वरु॑णम्। च॒। रि॒शाद॑सम् ॥ धिय॑म्। घृ॒ताची॑म्। साध॑न्ता ॥५७ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रँ हुवे पूतदक्षँवरुणञ्च रिशादसम् । धियङ्घृताचीँ साधन्ता॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रम्। हुवे। पूतदक्षमिति पूतऽदक्षम्। वरुणम्। च। रिशादसम्॥ धियम्। घृताचीम्। साधन्ता॥५७॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 57
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    पदार्थ -
    हे मनुष्यो! जैसे मैं (धियम्) बुद्धि तथा (घृताचीम्) शीतलतारूप जल को प्राप्त होनेवाली रात्रि को (साधन्ता) सिद्ध करते हुए (पूतदक्षम्) शुद्ध बलयुक्त (मित्रम्) मित्र (च) और (रिशादसम्) दुष्ट हिंसक को मारनेहारे (वरुणम्) धर्मात्मा जन को (हुवे) स्वीकार करता हूं, वैसे इनको तुम लोग भी स्वीकार करो॥५७॥

    भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे प्राण और उदान बुद्धि और रात्रि को सिद्ध करते वैसे विद्वान् लोग सब उत्तम साधनों का ग्रहण कर कार्य्यों को सिद्ध करें॥५७॥

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