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  • यजुर्वेद - अध्याय 33/ मन्त्र 76
    ऋषिः - वसिष्ठ ऋषिः देवता - इन्द्राग्नी देवते छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः
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    उ॒क्थेभि॑र्वृत्र॒हन्त॑मा॒ या म॑न्दा॒ना चि॒दा गि॒रा।आ॒ङ्गू॒षैरा॒विवा॑सतः॥७६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒क्थेभिः॑। वृ॒त्र॒हन्त॒मेति॑ वृत्र॒हन्ऽत॑मा। या। मन्दा॒ना। चि॒त्। आ। गि॒रा ॥ आ॒ङ्गूषैः। आ॒विवा॑सत॒ इत्या॒विवा॑सतः ॥७६ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उक्थेभिर्वृत्रहन्तमा या मन्दाना चिदा गिरा । आङ्गूषैराविवासतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    उक्थेभिः। वृत्रहन्तमेति वृत्रहन्ऽतमा। या। मन्दाना। चित्। आ। गिरा॥ आङ्गूषैः। आविवासत इत्याविवासतः॥७६॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 33; मन्त्र » 76
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    पदार्थ -
    (या) जो (मन्दाना) आनन्द देनेवाले (वृत्रहन्तमा) धर्म का निरोध करनेहारे पापियों के नाशक सभा सेनापति के (चित्) समान (गिरा) वाणी (आङ्गूषैः) अच्छे घोष और (उक्थेभिः) प्रशंसा योग्य स्तुतियों के साधक वेद के भागरूप मन्त्रों से शिल्प विज्ञान का (आविवासतः) अच्छे प्रकार सेवन करते हैं, उन अध्यापक उपदेशकों की मनुष्यों को (आ) अच्छे प्रकार सेवा करनी चाहिये॥७६॥

    भावार्थ - जो मनुष्य सभा सेनाध्यक्ष के तुल्य विद्यादि कार्य्यों के साधक सुन्दर उपदेशों से सबको विद्वान् करते हुए प्रवृत्त हों, वे ही सबको सत्कार करने योग्य हों॥७६॥

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