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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 49
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - भुरिक् त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    उप॑ सर्प मा॒तरं॒भूमि॑मे॒तामु॑रु॒व्यच॑सं पृथि॒वीं सु॒शेवा॑म्। ऊर्ण॑म्रदाः पृथि॒वी दक्षि॑णावतए॒षा त्वा॑ पातु॒ प्रप॑थे पु॒रस्ता॑त् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उप॑ । स॒र्प॒ । मा॒तर॑म् । भूमि॑म् । ए॒ताम् । उ॒रु॒ऽव्यच॑सम् । पृ॒थि॒वीम् । सु॒ऽशेवा॑म् । ऊर्ण॑ऽम्रदा: । पृ॒थि॒वी । दक्षि॑णाऽवते । ए॒षा । त्वा॒ । पा॒तु॒ । प्रऽप॑थे । पु॒रस्ता॑त् ॥३.४९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उप सर्प मातरंभूमिमेतामुरुव्यचसं पृथिवीं सुशेवाम्। ऊर्णम्रदाः पृथिवी दक्षिणावतएषा त्वा पातु प्रपथे पुरस्तात् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उप । सर्प । मातरम् । भूमिम् । एताम् । उरुऽव्यचसम् । पृथिवीम् । सुऽशेवाम् । ऊर्णऽम्रदा: । पृथिवी । दक्षिणाऽवते । एषा । त्वा । पातु । प्रऽपथे । पुरस्तात् ॥३.४९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 49

    पदार्थ -
    (मातरम्) माता [केसमान] (भूमिम्) आधारवाली (एताम्) इस (उरुव्यचसम्) बड़े फैलाववाली, (सुशेवाम्)बड़ी सुख देनेवाली (पृथिवीम्) पृथिवी को (उप) आदर से (सर्प) तू प्राप्त कर। (पृथिवी) पृथिवी (दक्षिणावते) दक्षिणा [प्रतिष्ठा] वाले पुरुष के लिये (ऊर्णम्रदाः) ऊन के समान मृदुल है, (एषा) यह [पृथिवी] (प्रपथे) बड़े मार्ग में (पुरस्तात्)सामने से (त्वा) तेरी (पातु) रक्षा करे ॥४९॥

    भावार्थ - जो जिज्ञासु पुरुष इसपृथिवी को खोजते रहते हैं, वे प्रतिष्ठा के साथ सुख भोगते हुए आगे बढ़ते जातेहैं ॥४९॥मन्त्र ४९-५२ कुछ भेद से ऋग्वेद में हैं−१०।१८।१०-१३ ॥

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