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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 57
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    इ॒मानारी॑रविध॒वाः सु॒पत्नी॒राञ्ज॑नेन स॒र्पिषा॒ सं स्पृ॑शन्ताम्। अ॑न॒श्रवो॑अनमी॒वाः सु॒रत्ना॒ आ रो॑हन्तु॒ जन॑यो॒ योनि॒मग्रे॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इ॒मा:। नारी॑: । अ॒वि॒ध॒वा: । सु॒ऽपत्नी॑: । आ॒ऽअञ्ज॑नेन । स॒र्पिषा॑ । सम् । स्पृ॒श॒न्ता॒म् । अ॒न॒श्रव॑: । अ॒न॒मी॒वा: । सु॒ऽरत्ना॑: । आ । रो॒ह॒न्तु॒ । जन॑य: । योनि॑म् । अग्रे॑ ॥५.५७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इमानारीरविधवाः सुपत्नीराञ्जनेन सर्पिषा सं स्पृशन्ताम्। अनश्रवोअनमीवाः सुरत्ना आ रोहन्तु जनयो योनिमग्रे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इमा:। नारी: । अविधवा: । सुऽपत्नी: । आऽअञ्जनेन । सर्पिषा । सम् । स्पृशन्ताम् । अनश्रव: । अनमीवा: । सुऽरत्ना: । आ । रोहन्तु । जनय: । योनिम् । अग्रे ॥५.५७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 57

    पदार्थ -
    (इमाः) यह [विदुषी] (नारीः) नारियाँ (अविधवाः) सधवा [मनुष्योंवाली] और (सुपत्नीः) धार्मिकपतियोंवाली होकर (आञ्जनेन) यथावत् मेल से और (सर्पिषा) घी आदि [सारपदार्थ] से (सं स्पृशन्ताम्) संयुक्त रहें। (अनश्रवः) बिना आसुओंवाली, (अनमीवाः) बिनारोगोंवाली, (सुरत्नाः) सुन्दर-सुन्दर रत्नोंवाली (जनयः) माताएँ (अग्रे) आगे-आगे (योनिम्) मिलने के स्थान [घर, सभा आदि] में (आ रोहन्तु) चढ़ें ॥५७॥

    भावार्थ - जो विदुषी स्त्रियाँब्रह्मचर्य आदि शुभ गुणवाली होती हैं, वे अपने विद्वान् सुयोग्य कुटुम्बियोंपतियों और पुत्र आदि के साथ शरीर और आत्मा से स्वस्थ रहकर बहुत धनवती और सुखवतीहोकर अग्रगामिनी बनती हैं ॥५७॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१८।७। औरऊपर आचुका है-अ० १२।२।३१ ॥

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