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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 30
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - पञ्चपदा जगती छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    प्राच्यां॑ त्वादि॒शि पु॒रा सं॒वृतः॑ स्व॒धाया॒मा द॑धामि बाहु॒च्युता॑ पृथि॒वी द्यामि॑वो॒परि॑। लो॑क॒कृतः॑ पथि॒कृतो॑ यजामहे॒ ये दे॒वानां॑ हु॒तभा॑गा इ॒ह स्थ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्राच्या॑म् । त्वा॒ । दि॒शि॒ । पु॒रा । स॒म्ऽवृत॑: । स्व॒धाया॑म् । आ । द॒धा॒मि॒ । बा॒हु॒ऽच्युता॑ । पृ॒थि॒वी । द्याम्ऽइ॑व । उ॒परि॑ । लो॒क॒ऽकृत॑: । प॒थि॒ऽकृत॑: । य॒जा॒म॒हे॒ । ये । दे॒वाना॑म् । हु॒तऽभा॑गा: । इ॒ह । स्थ ॥३.३०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्राच्यां त्वादिशि पुरा संवृतः स्वधायामा दधामि बाहुच्युता पृथिवी द्यामिवोपरि। लोककृतः पथिकृतो यजामहे ये देवानां हुतभागा इह स्थ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्राच्याम् । त्वा । दिशि । पुरा । सम्ऽवृत: । स्वधायाम् । आ । दधामि । बाहुऽच्युता । पृथिवी । द्याम्ऽइव । उपरि । लोकऽकृत: । पथिऽकृत: । यजामहे । ये । देवानाम् । हुतऽभागा: । इह । स्थ ॥३.३०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 30

    पदार्थ -
    [हे परमेश्वर !] (प्राच्याम्) पूर्व वा सामनेवाली (दिशि) दिशा में (त्वा) तुझे (स्वधायाम्)आत्मधारण शक्ति के बीच (पुरा) पूर्ति के साथ (संवृतः) घिरा हुआ मैं (आ) सब ओर से (दधामि) मैं [मनुष्य अपने में] धारण करता हूँ, (बाहुच्युता) भुजाओं से उत्साह दीगयी (पृथिवी) पृथिवी (इव) जैसे (द्याम् उपरि) सूर्य पर [सूर्य के आकर्षण, प्रकाशआदि के सहारे पर], [अपने में तुझे धारण करती है]। (लोककृतः) समाजों के करनेवाले, (पथिकृतः) मार्गों के बनानेवाले, [तुम लोगों] को (यजामहे) हम पूजते हैं, (ये) जोतुम (देवानाम्) विद्वानों के बीच (हुतभागाः) भाग लेनेवाले (इह) यहाँ पर (स्थ) हो॥३०॥

    भावार्थ - सर्वथा परिपूर्णपरमेश्वर से पूर्व आदि और सामनेवाली आदि दिशाओं में मनुष्य अपने में आत्मशक्तिपाकर पुरुषार्थ करता है, जैसे पृथिवी सूर्य के आकर्षण आदि में रह कर परमेश्वर कीदी हुई आत्मशक्ति से उपकार करती है। सब मनुष्य हितैषी विद्वानों का आश्रय लेकरउस जगदीश्वर की भक्ति करें ॥३०॥

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