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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 59
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    ये नः॑ पि॒तुःपि॒तरो॒ ये पि॑ताम॒हा य आ॑विवि॒शुरु॒र्व॑न्तरि॑क्षम्। तेभ्यः॑स्व॒राडसु॑नीतिर्नो अ॒द्य व॑थाव॒शं त॒न्वः कल्पयाति ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । न: । पि॒तु: । पि॒तर॑: । ये । पि॒ता॒म॒हा: । ये । आ॒ऽवि॒वि॒शु: । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । तेभ्य॑: । स्व॒ऽराट् । असु॑ऽनीति: । न॒: । अ॒द्य । य॒था॒ऽव॒शम् । त॒न्व॑: । क॒ल्प॒या॒ति॒ ॥३.५९॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये नः पितुःपितरो ये पितामहा य आविविशुरुर्वन्तरिक्षम्। तेभ्यःस्वराडसुनीतिर्नो अद्य वथावशं तन्वः कल्पयाति ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । न: । पितु: । पितर: । ये । पितामहा: । ये । आऽविविशु: । उरु । अन्तरिक्षम् । तेभ्य: । स्वऽराट् । असुऽनीति: । न: । अद्य । यथाऽवशम् । तन्व: । कल्पयाति ॥३.५९॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 59

    पदार्थ -
    (ये) जो पुरुष (नः)हमारे (पितुः) पिता के (पितरः) पिता के समान हैं, और (ये) जो [उसके] (पितामहाः)दादे के तुल्य हैं, और (ये) जो (उरु) चौड़े (अन्तरिक्षम्) आकाश में [विद्याबल सेविमान आदि द्वारा] (आविविशुः) प्रविष्ट हुए हैं, (तेभ्यः) उन [पितरों] के लिये (स्वराट्) स्वयं राजा (असुनीतिः) प्राणदाता परमेश्वर (नः) हमारे (तन्वः) शरीरोंको (अद्य) अब (यथावशम्) [हमारी] कामना के अनुकूल (कल्पयाति) समर्थ करे ॥५९॥

    भावार्थ - जो पितर लोग विद्या केभण्डार परोपकारी होवें, सब मनुष्य परमेश्वर की प्रार्थना द्वारा विद्या आदि शुभगुण प्राप्त कर के उन महात्माओं के उद्देश्य पूरे करने में समर्थ होवें ॥५९॥इसमन्त्र का उत्तरार्द्ध कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।१५।१४ तथा यजुर्वेद में−१९।६० और पूर्वार्द्ध ऊपर आया है-अ० १८।२।४९ ॥

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