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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 12
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    मि॒त्रावरु॑णा॒परि॒ माम॑धातामादि॒त्या मा॒ स्वर॑वो वर्धयन्तु। वर्चो॑ म॒ इन्द्रो॒ न्यनक्तु॒हस्त॑योर्ज॒रद॑ष्टिं मा सवि॒ता कृ॑णोतु ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्रावरु॑णा । परि॑ । माम् । अ॒धा॒ता॒म् । आ॒दि॒त्या: । मा॒ । स्वर॑व: । व॒र्ध॒य॒न्तु॒ । वर्च॑: । मे॒ । इन्द्र॑: । नि । अ॒न॒क्तु॒ । हस्त॑यो: । ज॒रत्ऽअ॒ष्टिम् । मा॒ । स॒वि॒ता । कृ॒णो॒तु॒ ॥३.१२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रावरुणापरि मामधातामादित्या मा स्वरवो वर्धयन्तु। वर्चो म इन्द्रो न्यनक्तुहस्तयोर्जरदष्टिं मा सविता कृणोतु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रावरुणा । परि । माम् । अधाताम् । आदित्या: । मा । स्वरव: । वर्धयन्तु । वर्च: । मे । इन्द्र: । नि । अनक्तु । हस्तयो: । जरत्ऽअष्टिम् । मा । सविता । कृणोतु ॥३.१२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 12

    पदार्थ -
    (मित्रावरुणा) स्नेहीऔर श्रेष्ठ दोनों [माता-पिता] ने (माम्) मुझे (परि) सब ओर से (अधाताम्) पुष्टकिया है, (आदित्याः) पृथिवी के (स्वरवः) जयस्तम्भ (मा) मुझे (वर्धयन्तु)बढ़ावें। (इन्द्रः) बड़े ऐश्वर्यवाला जगदीश्वर (मे) मेरे (हस्तयोः) दोनों हाथोंके (वर्चः) बल को (नि) नियम से (अनक्तु) प्रसिद्ध करे, (सविता) सर्वप्रेरकपरमात्मा (मा) मुझे (जरदष्टिम्) स्तुति के साथ प्रवृत्तिवाला (कृणोतु) करे ॥१२॥

    भावार्थ - जिन लोगों के माता-पिता आदि बड़े लोग श्रेष्ठ आदि सच्चे प्रेमी होते हैं, वे ही विजयी होकर संसारमें कीर्ति पाते हैं और परमात्मा के अनुग्रह से अपने भुजबल द्वारा श्रेष्ठ कामोंमें प्रवृत्ति करते हैं ॥१२॥

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