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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 66
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - अनुष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    नाके॑सुप॒र्णमुप॒ यत्पत॑न्तं॒ हृ॒दा वेन॑न्तो अ॒भ्यच॑क्षत त्वा। हिर॑ण्यपक्षं॒वरु॑णस्य दू॒तं य॒मस्य॒ योनौ॑ शकु॒नं भु॑र॒ण्युम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    नाके॑ । सु॒ऽप॒र्णम् । उप॑ । यत् । पत॑न्तम् । हृ॒दा । वेन॑न्त: । अ॒भि॒ऽअच॑क्षत । त्वा॒ । हिर॑ण्यऽयक्षम् । वरु॑णस्य । दू॒तम । य॒मस्य॑ । योनौ॑ । श॒कु॒नम् । भु॒र॒ण्यम् ॥३.६६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नाकेसुपर्णमुप यत्पतन्तं हृदा वेनन्तो अभ्यचक्षत त्वा। हिरण्यपक्षंवरुणस्य दूतं यमस्य योनौ शकुनं भुरण्युम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नाके । सुऽपर्णम् । उप । यत् । पतन्तम् । हृदा । वेनन्त: । अभिऽअचक्षत । त्वा । हिरण्यऽयक्षम् । वरुणस्य । दूतम । यमस्य । योनौ । शकुनम् । भुरण्यम् ॥३.६६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 66

    पदार्थ -
    [हे राजन् !] (यत्)जैसे (नाके) आकाश में (उपपतन्तम्) उड़ते हुए (सुपर्णम्) सुन्दर पंखवाले [गरुड़आदि] पक्षी को, [वैसे ही] (हिरण्यपक्षम्) तेज ग्रहण करनेवाले, (वरुणस्य) श्रेष्ठगुण के (दूतम्) पहुँचानेवाले, (यमस्य) न्याय के (योनौ) घर में (शकुनम्)शक्तिमान् और (भुरण्युम्) पालन करनेवाले (त्वा) तुझको (हृदा) हृदय से (वेनन्तः)चाहनेवाले पुरुष (अभ्यचक्षत) सब ओर से देखते हैं ॥६६॥

    भावार्थ - जो राजा महाप्रतापी, श्रेष्ठ गुणी, न्यायकारी और प्रजापालक होता है, मनुष्य उस वेगवान् तीव्रबुद्धिको ऐसी प्रीति से देखते हैं, जैसे आकाश में ऊँचे उड़ते हुए गरुड़ आदि को चावसे देखते हैं ॥६६॥यह मन्त्र ऋग्वेद में है−१०।१२३।५। और सामवेद में−पू० ४।३।८तथा उ० ९।२।१३ ॥

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