Loading...

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 65
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    प्र के॒तुना॑बृह॒ता भा॑त्य॒ग्निरा रोद॑सी वृष॒भो रो॑रवीति।दि॒वश्चि॒दन्ता॑दुप॒मामुदा॑नड॒पामु॒पस्थे॑ महि॒षो व॑वर्ध ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । के॒तुना॑ । बृ॒ह॒ता । भा॒ति॒ । अ॒ग्नि: । आ । रोद॑सी॒ इति॑ । वृ॒ष॒भ: । रो॒र॒वी॒ति॒ । दि॒व: । चि॒त् । अन्ता॑त् । उ॒प॒ऽमाम् । उत् । आ॒न॒ट् । अ॒पाम् । उ॒पऽस्थे॑ । म॒हि॒ष: । व॒व॒र्ध॒ ॥३.६५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र केतुनाबृहता भात्यग्निरा रोदसी वृषभो रोरवीति।दिवश्चिदन्तादुपमामुदानडपामुपस्थे महिषो ववर्ध ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । केतुना । बृहता । भाति । अग्नि: । आ । रोदसी इति । वृषभ: । रोरवीति । दिव: । चित् । अन्तात् । उपऽमाम् । उत् । आनट् । अपाम् । उपऽस्थे । महिष: । ववर्ध ॥३.६५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 65

    पदार्थ -
    (अग्निः) अग्निसमानतेजस्वी राजा (बृहता) बड़ी (केतुना) बुद्धि के साथ (प्र भाति) चमकता जाता है, [जैसे] (वृषभः) वृष्टि करानेवाला [सूर्य का ताप] (रोदसी) आकाश और पृथिवी में (आ)व्यापकर (रोरवीति) [बिजुली, मेघ, वायु आदि द्वारा] सब ओर से गरजता है। और (दिवः)सूर्यलोक के (चित्) ही (अन्तात्) अन्त से (उपमाम्) [हमारी] निकटता को (उत्)उत्तमता से (आनट्) वह [सूर्य का ताप] व्यापता है, [वैसे ही] (महिषः) वह पूजनीयराजा (अपाम्) प्रजाओं की (उपस्थे) गोद में (ववर्ध) बढ़ता है ॥६५॥

    भावार्थ - जैसे सूर्य अपने तापद्वारा पृथिवी से जल खींचकर और फिर बरसा कर आनन्द बढ़ाता है, वैसे ही जो प्रतापीराजा प्रजा से कर लेकर प्रजा को सुख देता है, वह प्रजाप्रिय होकर संसार मेंबढ़ता है ॥६५॥यह मन्त्र कुछ भेद से ऋग्वेद में है−१०।८।१। तथा सामवेद में−पू०१।७।९। दूसरा पाद ऋग्वेद में है−६।७३।१ ॥

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top