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  • अथर्ववेद - काण्ड 18/ सूक्त 3/ मन्त्र 70
    सूक्त - यम, मन्त्रोक्त देवता - त्रिष्टुप् छन्दः - अथर्वा सूक्तम् - पितृमेध सूक्त

    पुन॑र्देहिवनस्पते॒ य ए॒ष निहि॑त॒स्त्वयि॑। यथा॑ य॒मस्य॒ साद॑न॒ आसा॑तै वि॒दथा॒ वद॑न्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पुन॑: । दे॒हि॒ । व॒न॒स्प॒ते॒ । य: । ए॒ष: । निऽहि॑त: । त्वयि॑ । यथा॑ । य॒मस्य॑ । सद॑ने । आसा॑तै । वि॒दथा॑ । वद॑न् ॥३.७०॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पुनर्देहिवनस्पते य एष निहितस्त्वयि। यथा यमस्य सादन आसातै विदथा वदन्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पुन: । देहि । वनस्पते । य: । एष: । निऽहित: । त्वयि । यथा । यमस्य । सदने । आसातै । विदथा । वदन् ॥३.७०॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 18; सूक्त » 3; मन्त्र » 70

    पदार्थ -
    (वनस्पते) हे सेवकोंके रक्षक [परमात्मन् !] [वह श्रेष्ठ गुण] (पुनः) निश्चय कर के (देहि) दे, (यःएषः) जो यह [श्रेष्ठ गुण] (त्वयि) तुझ में (निहितः) दृढ़ रक्खा है। (यथा) जिस सेयह [जीव] (यमस्य) न्याय के (सदने) घर में (विदथा) ज्ञानों को (वदन्) बताता हुआ (आसातै) बैठे ॥७०॥

    भावार्थ - मनुष्य परमेश्वर केसर्वव्यापक उत्तम गुणों को अवश्य प्रयत्न से प्राप्त करके न्याय के साथ संसारमें उपकार करे ॥७०॥

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