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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 24
    ऋषिः - गृत्समद ऋषिः देवता - अग्निर्देवता छन्दः - आर्षी पङ्क्तिः स्वरः - पञ्चमः
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    आ वि॒श्वतः॑ प्र॒त्यञ्चं॑ जिघर्म्यर॒क्षसा॒ मन॑सा॒ तज्जु॑षेत। मर्य्य॑श्री स्पृह॒यद्व॑र्णोऽअ॒ग्निर्नाभि॒मृशे॑ त॒न्वा जर्भु॑राणः॥२४॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ। वि॒श्वतः॑। प्र॒त्यञ्च॑म्। जि॒घ॒र्मि॒। अ॒र॒क्षसा॑। मन॑सा। तत्। जु॒षे॒त॒। मर्य्य॑श्रीरिति॒ मर्य्य॑ऽश्रीः। स्पृ॒ह॒यद्व॑र्ण॒ इति॑ स्पृह॒यत्ऽव॑र्णः। अ॒ग्निः। न। अ॒भि॒मृश॒ इत्य॑भि॒ऽमृशे॑। त॒न्वा᳕। जर्भु॑राणः ॥२४ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ विश्वतः प्रत्यञ्चज्जिघर्म्यरक्षसा मनसा तज्जुषेत । मर्यश्री स्पृहयद्वर्णाऽअग्निर्नाभिमृशे तन्वा जर्भुराणः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    आ। विश्वतः। प्रत्यञ्चम्। जिघर्मि। अरक्षसा। मनसा। तत्। जुषेत। मर्य्यश्रीरिति मर्य्यऽश्रीः। स्पृहयद्वर्ण इति स्पृहयत्ऽवर्णः। अग्निः। न। अभिमृश इत्यभिऽमृशे। तन्वा। जर्भुराणः॥२४॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 24
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে মনুষ্য ! (ন) যেমন (বিশ্বতঃ) সব দিক দিয়া (অগ্নিঃ) বিদ্যুৎ ও প্রাণবায়ু শরীরে ব্যাপক হইয়া (অভিমৃশে) সহনশীলদের পক্ষে হিতকারী, যেমন (তন্বা) শরীর দ্বারা (জর্ভুরাণঃ) শীঘ্র হস্ত পদাদি অঙ্গ চালনা করিয়া (স্পৃহদ্বর্ণঃ) ইচ্ছুক ব্যক্তিদের স্বীকৃতিসদৃশ (মর্য়্যশ্রীঃ) মনুষ্যদিগের শোভাতুল্য বায়ুসম বেগযুক্ত হইয়া আমি যে (প্রত্যঞ্চম্) শরীরের বায়ুকে নিরন্তর চালনাকারী বিদ্যুৎকে (অরক্ষসা) রাক্ষসদিগের দুষ্টতারহিত (মনসা) চিত্ত দ্বারা (আজিঘর্মি) প্রকাশিত করিতেছি সেইরূপ সেই তেজকে (জুষেত) সেবন কর ॥ ২৪ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে উপমা ও বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে মনুষ্যগণ ! তোমরা লক্ষ্মী প্রাপ্তকারক অগ্নি আদি পদার্থকে জানিয়া এবং তাহাদেরকে কার্য্যে সংযুক্ত করিয়া ধনবান হও ॥ ২৪ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - আ বি॒শ্বতঃ॑ প্র॒ত্যঞ্চং॑ জিঘর্ম্যর॒ক্ষসা॒ মন॑সা॒ তজ্জু॑ষেত ।
    মর্য়্য॑শ্রী স্পৃহ॒য়দ্ব॑র্ণোऽঅ॒গ্নির্নাভি॒মৃশে॑ ত॒ন্বা᳕ জর্ভু॑রাণঃ ॥ ২৪ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - আ বিশ্বত ইত্যস্য গৃৎসমদ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । আর্ষী পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
    পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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