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  • यजुर्वेद - अध्याय 11/ मन्त्र 53
    ऋषिः - सिन्धुद्वीप ऋषिः देवता - मित्रो देवता छन्दः - उपरिष्टाद् बृहती स्वरः - मध्यमः
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    मि॒त्रः स॒ꣳसृज्य॑ पृथि॒वीं भूमिं॑ च॒ ज्योति॑षा स॒ह। सुजा॑तं जा॒तवे॑दसमय॒क्ष्माय॑ त्वा॒ सꣳसृ॑जामि प्र॒जाभ्यः॑॥५३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒त्रः। स॒ꣳसृज्येति॑ स॒म्ऽसृज्य॑। पृ॒थि॒वीम्। भूमि॑म्। च॒। ज्योति॑षा। स॒ह। सुजा॑त॒मिति॒ सुऽजा॑तम्। जा॒तवे॑दस॒मिति॑ जा॒तऽवे॑दसम्। अ॒य॒क्ष्माय॑। त्वा॒। सम्। सृ॒जा॒मि॒। प्र॒जाभ्य॒ इति॑ प्र॒ऽजाभ्यः॑ ॥५३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मित्रः सँसृज्य पृथिवीम्भूमिञ्च ज्योतिषा सह । सुजातञ्जातवेदसमयक्ष्माय त्वा सँ सृजामि प्रजाभ्यः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    मित्रः। सꣳसृज्येति सम्ऽसृज्य। पृथिवीम्। भूमिम्। च। ज्योतिषा। सह। सुजातमिति सुऽजातम्। जातवेदसमिति जातऽवेदसम्। अयक्ष्माय। त्वा। सम्। सृजामि। प्रजाभ्य इति प्रऽजाभ्यः॥५३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 11; मन्त्र » 53
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    पदार्थ -
    পদার্থঃ- হে পতে ! আপনি যে (মিত্রঃ) সকলের মিত্র হইয়া (প্রজাভ্যঃ) পালন যোগ্য প্রজাদিগকে (অয়ক্ষ্মায়) আরোগ্য হেতু (জ্যোতিষা) বিদ্যা এবং ন্যায়ের সুশিক্ষার আলোকের (সহ) সঙ্গে (পৃথিবীম্) অন্তরিক্ষ (চ) এবং (ভূমিম্) ভূমি সহ (সংসৃজ্য) সম্পর্ক করিয়া আমাকে সুখ প্রদান করেন । সেই (সুজাতম্) সুপ্রসিদ্ধ (জাতবেদসম্) বেদজ্ঞাতা (ত্বা) আপনাকে আমি (সংসৃজামি) প্রসিদ্ধ করি ॥ ৫৩ ॥

    भावार्थ - ভাবার্থঃ- স্ত্রীপুরুষদিগের উচিত যে, শ্রেষ্ঠ গুণবান্ বিদ্বান্দের সঙ্গ দ্বারা শুদ্ধ আচরণ গ্রহণ করিয়া শরীর ও আত্মার আরোগ্যলাভ করিয়া সুসন্তানদিগের উৎপন্ন কর ॥ ৫৩ ॥

    मन्त्र (बांग्ला) - মি॒ত্রঃ স॒ꣳসৃজ্য॑ পৃথি॒বীং ভূমিং॑ চ॒ জ্যোতি॑ষা স॒হ ।
    সুজা॑তং জা॒তবে॑দসময়॒ক্ষ্মায়॑ ত্বা॒ সꣳ সৃ॑জামি প্র॒জাভ্যঃ॑ ॥ ৫৩ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर - মিত্র ইত্যস্য সিন্ধুদ্বীপ ঋষিঃ । মিত্রো দেবতা । উপরিষ্টাদ্ বৃহতী ছন্দঃ ।
    মধ্যমঃ স্বরঃ ॥

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