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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 19
    ऋषिः - देवा ऋषयः देवता - पदार्थविदात्मा देवता छन्दः - निचृदत्यष्टिः स्वरः - गान्धारः
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    अ॒ꣳशुश्च॑ मे र॒श्मिश्च॒ मेऽदा॑भ्यश्च॒ मेऽधि॑पतिश्च मऽउपा॒शुश्च॑ मेऽन्तर्या॒मश्च॑ मऽऐन्द्रवाय॒वश्च॑ मे मैत्रावरु॒णश्च॑ मऽआश्वि॒नश्च॑ मे प्रतिप्र॒स्थान॑श्च मे शु॒क्रश्च॑ मे म॒न्थी च॑ मे य॒ज्ञेन॑ कल्पताम्॥१९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒ꣳशुः। च॒। मे॒। र॒श्मिः। च॒। मे॒। अदा॑भ्यः। च॒। मे॒। अधि॑पति॒रित्यधि॑ऽपतिः। च॒। मे॒। उ॒पा॒अ॒शुरित्यु॑पऽ अ॒ꣳशुः। च॒। मे॒। अ॒न्त॒र्या॒म इत्य॑न्तःऽया॒मः। च॒। मे॒। ऐ॒न्द्र॒वा॒य॒वः। च॒। मे॒। मै॒त्रा॒व॒रु॒णः। च॒। मे॒। आ॒श्वि॒नः। च॒। मे॒। प्र॒ति॒प्र॒स्थान॒ इति॑ प्रतिऽप्र॒स्थानः॑। च॒। मे॒। शु॒क्रः। च॒। मे॒। म॒न्थी। च॒। मे॒। य॒ज्ञेन॑। क॒ल्प॒न्ता॒म् ॥१९ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अँशुश्च मे रश्मिश्च मे दाभ्यश्च मे धिपतिश्च म उपाँशुश्च मे न्तर्यामश्च मऽऐन्द्रवायश्च मे मैत्रावरुणश्च मऽआश्विनश्च मे प्रतिप्रस्थानश्च मे शुक्रश्च मे मन्थी च मे यज्ञेन कल्पन्ताम्॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अꣳशुः। च। मे। रश्मिः। च। मे। अदाभ्यः। च। मे। अधिपतिरित्यधिऽपतिः। च। मे। उपाअशुरित्युपऽ अꣳशुः। च। मे। अन्तर्याम इत्यन्तःऽयामः। च। मे। ऐन्द्रवायवः। च। मे। मैत्रावरुणः। च। मे। आश्विनः। च। मे। प्रतिप्रस्थान इति प्रतिऽप्रस्थानः। च। मे। शुक्रः। च। मे। मन्थी। च। मे। यज्ञेन। कल्पन्ताम्॥१९॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 19
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - (मे) माझा (अंशु:) दूर दूरपर्यंत व्याप्त असणारा सूर्य (च) आणि त्याचा प्रताप (त्यापासून होणारे लाभ प्रकाश, उष्णता आदी) तसेच (मे) माझी (रश्मि:) भोजन-क्रिया (न) आणि विविध प्रकारचे भोज्य पदार्थ (माझ्यासाठी अग्नीच्या संबंधामुळे समर्थ व हितकर होवोत) (मे) माझा (अदाभ्य:) अविनाशी (च) आणि रक्षक (राजा वा सेवाधीश) तसेच (मे) माझा (अधिपति:) स्वामी (मला आश्रय वा सहाय्य करणारा माझा कार्याधिकारी) (च) माझे कार्यस्थान (कार्यालय) (माझ्यासाठी सुखकर होवो) (मे) माझा (उपांशु:) मी मनात करीत असलेला जप (च) आणि एकांतात करीत असलेले विचार वा चिंतन, तसेच (मे) माझे (अन्तर्याम:) मध्यम भागात संचरणारा वायू (च) आणि त्यासापूस मिळणारी शक्ती, तसेच (मे) माझे (ऐन्द्रवायन:) विद्युत आणि पवन यांच्याशी संबंध असणारे सर्व कार्य (च) आणि जलाशी संबंधित (सर्वक्रिया, प्रयोगादी) (माझ्यासाठी हितक रहावे) (मे) माझे (मैत्रावरूण:) प्राण आणि उदान यांच्याशी संबधित कार्य (च) आणि व्यान वायूशी संबंधित क्रिया, तसेच (मे) माझे (आश्विन:) सूर्य आणि चंद्र यांच्यात व्याप्त असणारा तेज (च) आणि त्या तेजाचा प्रभाव (मला सुखकर होवो) (मे) माझी (प्रतिप्रस्थान:) चलणे (आदी क्रिया करण्याविषयी असलेली आवड (च) आणि संचरण, भ्रमण करणे, तसेच (मे) माझे (शुक्र:) शुद्धस्वरूप (च) आणि वीर्य (शक्ती वा ऊर्जा) (मला हितकर व्हावी) (मे) माझा विलय (वा सम्मिलन, ऐक्य आदीची प्रवृत्ती) (च) आणि दूध व काष्ठ आदी सर्व पदार्थ (यज्ञेन) अग्नीच्या उपयोगाद्वारे माझ्यासाठी शक्तिदायक व सामर्थ्यपूर्ण ॥19॥

    भावार्थ - भावार्थ - कोणी माणूस सूर्यप्रकाश आदी पदार्थांपासून योग्य तो लाभ घेतो व त्यामुळे विद्यावान होऊन क्रियाकुशल होतो, यात नवल ते काय आहे? (अर्थात ते साहजिक आहे) ॥19॥

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