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  • यजुर्वेद - अध्याय 18/ मन्त्र 63
    ऋषिः - विश्वामित्र ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    प्र॒स्त॒रेण॑ परि॒धिना॑ स्रु॒चा वेद्या॑ च ब॒र्हिषा॑। ऋ॒चेमं य॒ज्ञं नो॑ नय॒ स्वर्दे॒वेषु॒ गन्त॑वे॥६३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒स्त॒रेणेति॑ प्रऽस्त॒रेण॑। प॒रि॒धिनेति॑ परि॒ऽधिना॑। स्रु॒चा। वेद्या॑। च॒। ब॒र्हिषा॑। ऋ॒चा। इ॒मम्। य॒ज्ञम्। नः॒। न॒य॒। स्वः᳖। दे॒वेषु॑। गन्त॑वे ॥६३ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रस्तरेण परिधिना स्रुचा वेद्या च बर्हिषा । ऋचेमँयज्ञन्नो नय स्वर्देवेषु गन्तवे ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    प्रस्तरेणेति प्रऽस्तरेण। परिधिनेति परिऽधिना। स्रुचा। वेद्या। च। बर्हिषा। ऋचा। इमम्। यज्ञम्। नः। नय। स्वः। देवेषु। गन्तवे॥६३॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 18; मन्त्र » 63
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे (यज्ञकर्ता) विद्वान, आपण (वेधा) ज्यावर होम करतात, ती यज्ञवेदी (तयार करून) (स्रुचा) व होम करण्याचे साधन (चमचा) यांसह (बर्हिषा) योग्य पद्धतीने (प्रस्तरेण) आसन-व्यवस्था करून (परिधिना) जो सर्वत: वा पूर्णत: धारण केला जातो, या यजुर्वेदातील मंत्रांनी (च) आणि (ऋचा) स्तुतिपरक ऋग्वेदाच्या मंत्रांनी (इमम्) या पदार्थमय यज्ञ करा की ज्या यज्ञात उत्तम भोज्य पदार्थांची आहुती दिली जाते. त्या (यज्ञम्) अग्निहोत्र आदी यज्ञाला (देवेषु) दिव्य पदार्थांच्या प्राप्तीसाठी वा विद्वानांपर्यंत (गन्तवे) नेण्यासाठी (न्या) तसेच (स्व:) सांसारिक सुखांच्या प्राप्तीसाठी हा यज्ञ (न:) आम्हा सर्वांपर्यंत (नय) न्या (आपण यज्ञांद्वारे श्रेष्ठ विद्वानांना तसेच आम्हा सामान्य जनांनाही आपण सुखाची प्राप्ती करून द्या) ॥63॥

    भावार्थ - भावार्थ - जे लोक धर्म मार्गाने प्राप्त पदार्थांद्वारे तसेच वैदिक रीतीने सांगोपांग यज्ञ करतात, ते सर्व प्राण्यांवर उपकार करणारे असतात ॥63॥

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