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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 85
    ऋषिः - मधुच्छन्दा ऋषिः देवता - सरस्वती देवता छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः
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    चो॒द॒यि॒त्री सू॒नृता॑नां॒ चेत॑न्ती सुमती॒नाम्। य॒ज्ञं द॑धे॒ सर॑स्वती॥८५॥

    स्वर सहित पद पाठ

    चो॒द॒यि॒त्री। सू॒नृता॑नाम्। चेत॑न्ती। सु॒म॒ती॒नामिति॑ सुऽमती॒नाम्। य॒ज्ञम्। द॒धे॒। सर॑स्वती ॥८५ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    चोदयित्री सूनृतानाञ्चेतन्ती सुमतीनाम् । यज्ञन्दधे सरस्वती ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    चोदयित्री। सूनृतानाम्। चेतन्ती। सुमतीनामिति सुऽमतीनाम्। यज्ञम्। दधे। सरस्वती॥८५॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 85
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - हे स्त्रियांनो, (गृहस्थ नारीजनहो) ज्याप्रमाणे (सूनृतानाम्‌) सुशिक्षित सुसंस्कृत आणी बोलणारी (चोदयित्री) आणि तशी वाणी बोलण्यासाठी प्रेरणा देणारी तसेच (सुमतीनाम्‌) शुभ विचारांना (चेतन्ती) बुद्धीत उत्पन्न करणारी (सरस्वती) उत्तम ज्ञानवती मी (एक सुसंस्कृत महिला) (यज्ञम्‌) यज्ञ (दधे) धारण करीत आहे (नित्य नियमाने यज्ञ करते) त्याप्रमाणे तुम्ही सर्व जणांनीही सदा यज्ञ केला पाहिजे ॥85॥

    भावार्थ - भावार्थ - (गावात जी विदुषी स्त्री असेल, तिने (शेजारील, गल्लीतील वा गावातील) इतर सर्व स्त्रियांना सदैव सुशिक्षा आणि सत्य ज्ञान देत जावे की ज्यायोगे त्यांच्यामधे विद्या-ज्ञानाची वृद्धी होईल. ॥85॥

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