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  • यजुर्वेद - अध्याय 20/ मन्त्र 8
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सभापतिर्देवता छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः
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    पृ॒ष्ठीर्मे॑ रा॒ष्ट्रमु॒दर॒मꣳसौ॑ ग्री॒वाश्च॒ श्रोणी॑। ऊ॒रूऽअ॑र॒त्नी जानु॑नी॒ विशो॒ मेऽङ्गा॑नि स॒र्वतः॑॥८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    पृ॒ष्ठीः। मे॒। रा॒ष्ट्रम्। उ॒दर॑म्। अꣳसौ॑। ग्री॒वाः। च॒। श्रोणी॒ऽइति॒ श्रोणी॑। ऊ॒रूऽइत्यू॒रू। अ॒र॒त्नी। जानु॑नी॒ऽइति॒ जानु॑नी। विशः॑। मे॒। अङ्गा॑नि। स॒र्वतः॑ ॥८ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पृष्टीर्मे राष्ट्रमुदरमँसौ ग्रीवाश्च श्रोणी । ऊरूऽअरत्नी जानुनी विशो मेङ्गानि सर्वतः ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    पृष्ठीः। मे। राष्ट्रम्। उदरम्। अꣳसौ। ग्रीवाः। च। श्रोणीऽइति श्रोणी। ऊरूऽइत्यूरू। अरत्नी। जानुनीऽइति जानुनी। विशः। मे। अङ्गानि। सर्वतः॥८॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 20; मन्त्र » 8
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    शब्दार्थ -
    शब्दार्थ - (राष्ट्रपती म्हणतात) हे मनुष्यानो, (हे प्रजाजनहों, तुम्ही विश्वास ठेवा की (मे) माझे (राष्ट्र) हे राज्य (तुमचे आहे. माझे अंग, अंग तुम्हीच आहात) माझी (पृष्ठी) पाठ (उदरम्‌) पोट (अंसौ) दोन्ही खांदे (ग्रीवाः) कंठप्रदेश (श्रोणीः) कटिप्रदेश (उरू) जंघा (अरत्नी) भुजाचा मध्यप्रदेश (खांद्यापासून ते मनगटापर्यंतचा भाग आणि (जानुनी) घोटा व गुडघा-प्रदेश (सर्वतः) एवढेच नव्हे तर सर्व शरीर सर्व दृष्टीने (तुमचे वा तुमच्या सेवेसाठी आहेत) (च) आणि माझे (अङ्गानि) सर्व अवयव (मे) माझे (विशः) प्रजाजनच आहे (अशी मी तुम्हांस ग्वाही देतो. मला माझे प्रजाजन स्वतःच्या प्राणाहून अधिक प्रिय आहेत) ॥8॥

    भावार्थ - भावार्थ - जो राजा प्रजेला आपल्या शरीरातील अवयवांप्रमाणे प्रिय मानतो, तोच सदा पुढे पुढे प्रगती करीत जातो ॥8॥

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