ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 10
इन्द्र॑ मृ॒ळ मह्यं॑ जी॒वातु॑मिच्छ चो॒दय॒ धिय॒मय॑सो॒ न धारा॑म्। यत्किं चा॒हं त्वा॒युरि॒दं वदा॑मि॒ तज्जु॑षस्व कृ॒धि मा॑ दे॒वव॑न्तम् ॥१०॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । मृ॒ळ । मह्य॑म् । जी॒वातु॑म् । इ॒च्छ॒ । चो॒दय॑ । धिय॑म् । अय॑सः । न । धारा॑म् । यत् । किम् । च॒ । अ॒हम् । त्वा॒ऽयुः । इ॒दम् । वदा॑मि । तत् । जु॒ष॒स्व॒ । कृ॒धि । मा॒ । दे॒वऽव॑न्तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र मृळ मह्यं जीवातुमिच्छ चोदय धियमयसो न धाराम्। यत्किं चाहं त्वायुरिदं वदामि तज्जुषस्व कृधि मा देववन्तम् ॥१०॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र। मृळ। मह्यम्। जीवातुम्। इच्छ। चोदय। धियम्। अयसः। न। धाराम्। यत्। किम्। च। अहम्। त्वाऽयुः। इदम्। वदामि। तत्। जुषस्व। कृधि। मा। देवऽवन्तम् ॥१०॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 10
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 31; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वं मा मां मृळ मह्यं जीवातुमिच्छाऽयसो न धियं धारां चोदय। त्वायुरहं यत्किञ्च वदामि तदिदं जुषस्व देववन्तं मां कृधि ॥१०॥
पदार्थः
(इन्द्र) सर्वार्थस्य सुखस्य धर्त्तः (मृळ) सुखय (मह्यम्) (जीवातुम्) जीवनम् (इच्छ) (चोदय) (धियम्) प्रज्ञां धर्म्यं कर्म वा (अयसः) हिरण्यस्य। अय इति हिरण्यनाम। (निघं०१.२) (न) इव (धाराम्) प्रगल्भां वाचम् (यत्) (किम्) (च) (अहम्) (त्वायुः) त्वां कामयमानः (इदम्) (वदामि) (तत्) (जुषस्व) सेवस्व (कृधि) कुरु (मा) माम् (देववन्तम्) देवा विद्वांसो विद्यन्ते सम्बन्धे यस्य तम् ॥१०॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः। हे राजन् ! यथा सर्वे जना हिरण्यादिधनस्येच्छां कुर्वन्ति तथैव त्वं प्रजापालनेच्छां कुरु सर्वाः प्रजा यथा सुशिक्षितां वाचं प्रमामायुर्विद्वत्सङ्गं प्राप्नुयुस्तथा विधेहि ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सब के लिये सुख के धारण करनेवाले ! आप (मा) मुझको (मृळ) सुखी करिये और (मह्यम्) मेरे लिये (जीवातुम्) जीवन की (अच्छ) इच्छा करिये और (अयसः) सुवर्ण के (न) समान (धियम्) बुद्धि वा धर्म्मयुक्त कर्म्म को और (धाराम्) प्रगल्भ वाणी को (चोदय) प्रेरणा करिये और (त्वायुः) आपकी कामना करता हुआ (अहम्) मैं (यत्) जो (किम्) कुछ (भी) (वदामि) कहता हूँ (तत्) उस (इदम्) इसको (जुषस्व) सेवन करिये और (देववन्तम्) विद्वान् जिसके सम्बन्ध में ऐसा मुझको (कृधि) करिये ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। हे राजन् ! जैसे सब जन सुवर्ण आदि धन की इच्छा करते हैं, वैसे ही आप अपनी प्रजा के पालन की इच्छा करिये और सम्पूर्ण प्रजायें जैसे उत्तम प्रकार शिक्षित वाणी, यथार्थ ज्ञान, अवस्था और विद्वानों के सङ्ग को प्राप्त होवें, वैसे करिये ॥१०॥
विषय
दीर्घ जीवन, बुद्धि, वाणी की प्रार्थना ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! सब सुखों के देने हारे ! प्रभो ! तू (मह्यं मृड) मुझे सुखी कर और ( मह्यं जीवातुम् इच्छ ) मेरे दीर्घ जीवन की इच्छा कर । ( मह्यं धियं धारां च ) बुद्धि और वाणी दोनों को ( अयसः धाराम् न ) लोहे के बने शस्त्र की धारा के समान अति तीव्र और तीक्ष्ण बनाकर ( चोदय ) उनको सन्मार्ग में चला । ( अहं ) मैं ( त्वायुः ) तेरी कामना करता हुआ ( यत् किं च इदं वदामि ) यह जो कुछ भी तेरे समक्ष कहूं ( तत् जुषस्व ) उसे तू स्वीकार कर और ( मा) मुझे ( देववन्तं ) उत्तम गुणवान् और उत्तम मनुष्यों का स्वामी ( कृधि ) कर । इत्येकत्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
तीक्ष्ण बुद्धि
पदार्थ
[१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (मह्यं मृड) = मेरे लिये सुख को करनेवाले होइये। मेरे लिये (जीवातुम्) = जीवनौषध की (इच्छ) = इच्छा करिये। आपके अनुग्रह से मेरा जीवन दीर्घ व नीरोग बने। मेरी (धियम्) = बुद्धि को, (अयसः धारां न) = लोह के बने अस्त्रों की धारा के समान (चोदय) = प्रेरित करिये, तीक्ष्ण बनाइये । [२] (अहम्) = मैं (त्वायुः) = आपकी प्राप्ति की कामनावाला (यत् किञ्च) = जो कुछ (वदामि) = कहता हूँ, (तद् इदम्) = उस मेरी इस प्रार्थनाओं को (जुषस्व) = प्रीतिपूर्वक सेवन करिये। मुझे (देववन्तं कृधि) = उत्तम दिव्य गुणोंवाला बनाइये। (मा) = मैं उत्तम बुद्धि को प्राप्त करके उत्तम मार्ग पर चलता हुआ दिव्य गुणोंवाला बनूँ ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु मेरे लिये सुख को दें। मुझे जीवनौषध प्राप्त कराके नीरोग जीवनवाला मेरी बुद्धि को तीव्र करें। मुझे दिव्य गुणोंवाला बनाएँ ।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. हे राजा ! जसे सर्व लोक सुवर्ण इत्यादी धनाची इच्छा करतात तसेच तू आपल्या प्रजेचे पालन करण्याची इच्छा कर. संपूर्ण प्रजा उत्तम प्रकारे सुसंस्कृत वाणी, यथार्थ ज्ञान व दीर्घायु प्राप्त करून विद्वानांचा संग करील असा प्रयत्न कर. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, ruler sustainer of all, be kind and gracious to me, please to wish me the good life, sharpen and inspire my mind and intellect like the razor’s edge. And whatever I wish out of love and devotion, to you I say this: Please to accept and grant, and raise me up to the love and favour of divinity.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do-is again told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O king ! bestow happiness on me. Desire for my long life, inspire me to have good intellect, good actions and good speech-attractive like gold. Accept my prayers in whatever words I speak, provide me the company of enlightened persons.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
There is simile used in the mantra. As all ordinary men desire to have gold and other kinds of wealth, so you should always desire to nourish your subjects well. Make such arrangements that all your subjects may attain well-trained speech, knowledge, long life and the association with the enlightened men.
Translator's Notes
The word अय: is generally used for iron, so other translators usually render into English the second stanza as "sharpen my intellect as it were a blade of iron". There is nothing objectionable there, particularly when by Indra-God is to be taken.
Foot Notes
(अयस:) हिरण्यस्व । अवं इति हिरण्यनाम (NGT 1, 2) | Gold. (धियम्) प्रथां धर्भ्यं कर्म वा धीरिति प्रशानाम (NG 3, 9) धीरिति कर्मनाम (NG 2, 1) = Good intellect or good action. (धाराम्) प्रगल्भां वाचम्। धारा इति वाङ्नाम (NG 1, 11 ) = Good and effective speech.
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