ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 21
दि॒वेदि॑वे स॒दृशी॑र॒न्यमर्धं॑ कृ॒ष्णा अ॑सेध॒दप॒ सद्म॑नो॒ जाः। अह॑न्दा॒सा वृ॑ष॒भो व॑स्न॒यन्तो॒दव्र॑जे व॒र्चिनं॒ शम्ब॑रं च ॥२१॥
स्वर सहित पद पाठदि॒वेऽदि॑वे । स॒ऽदृशीः॑ । अ॒न्यम् । अर्ध॑म् । कृ॒ष्णाः । अ॒से॒ध॒त् । अप॑ । सद्म॑नः । जाः । अह॑न् । दा॒सा । वृ॒ष॒भः । व॒स्न॒यन्ता॑ । उ॒दऽव्र॑जे । व॒र्चिन॑म् । शम्ब॑रम् । च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
दिवेदिवे सदृशीरन्यमर्धं कृष्णा असेधदप सद्मनो जाः। अहन्दासा वृषभो वस्नयन्तोदव्रजे वर्चिनं शम्बरं च ॥२१॥
स्वर रहित पद पाठदिवेऽदिवे। सऽदृशीः। अन्यम्। अर्धम्। कृष्णाः। असेधत्। अप। सद्मनः। जाः। अहन्। दासा। वृषभः। वस्नयन्ता। उदऽव्रजे। वर्चिनम्। शम्बरम्। च ॥२१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 21
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तौ राजप्रजाजनौ कथं वर्त्तेयातामित्याह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथा जाः सूर्यो दिवेदिवे सदृशीः कृष्णा अन्यमर्धं चाऽसेधत् सद्मनोऽन्धकारमपासेधद् वृषभ उदव्रजे वर्चिनं शम्बरमहँस्तथा वस्नयन्ता दासा वर्त्तेयाताम् ॥२१॥
पदार्थः
(दिवेदिवे) प्रतिदिनम् (सदृशीः) समानस्वरूपाः (अन्यम्) (अर्द्धम्) अर्द्धकम् (कृष्णाः) निकृष्टवर्णाः कर्षिता वा (असेधत्) सेधते (अप) (सद्मनः) सीदन्ति यस्मिँस्तस्य (जाः) जायमानः सूर्यः (अहन्) हन्ति (दासा) दासावुपक्षयितारौ (वृषभः) वृष्टिकरः (वस्नयन्ता) वस्नमिवाचरन्तौ राजप्रजाजनौ (उदव्रजे) उदकानि व्रजन्ति यस्मिँस्तस्मिन् (वर्चिनम्) देदीप्यमानम् (शम्बरम्) मेघम् (च) ॥२१॥
भावार्थः
हे मनुष्या ! यथा सूर्यमेघौ सर्वां पृथिवीमाकृष्य प्रकाशजलयुक्तां कुरुतः। यथा सूर्योऽस्या अर्धं भागं प्रकाशयति वृष्टिं च करोत्यन्धकारं निवार्य्य सर्वान् सुखयति तथैव राजप्रजाजनौ सत्यमाकृष्याऽसत्यं त्यक्त्वाऽन्यायं निवार्य्य न्यायं प्रचार्य्य सद्विद्योपदेशवृष्टिं विधाय सर्वान् मनुष्यान् सुखयेताम् ॥२१॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वे राजा और प्रजाजन कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (जाः) प्रकट हुआ सूर्य्य (दिवेदिवे) प्रतिदिन (सदृशीः) तुल्यस्वरूपयुक्त (कृष्णाः) खराब वर्णवाली वा खोदी गई पृथिवियों और (अन्यम्) अन्य (अर्द्धम्) आधे को (च) भी (असेधत्) अलग करता है और (सद्मनः) निवास करते हैं जिसमें उस गृह के अन्धकार को (अप) अलग करता है तथा (वृषभः) वृष्टि करनेवाला (उदव्रजे) जल जाते हैं जिसमें उसमें (वर्चिनम्) प्रकाशमान (शम्बरम्) मेघ का (अहन्) नाश करता है, वैसे (वस्नयन्ता) निवास करते हुए के समान आचरण करते हुए राजा और प्रजाजन (दासा) उपेक्षा करनेवाले हुए वर्त्ताव करें ॥२१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे सूर्य और मेघ समस्त पृथिवी का आकर्षण कर प्रकाश और जलयुक्त करते हैं वा जैसे सूर्य इस पृथिवी के अर्द्धभाग को प्रकाशित करता और वर्षा को करता है तथा अन्धकार का निवारण कर सबको सुखी करता है, वैसे ही राजा और प्रजाजन सत्य को खैंच असत्य को त्याग कर अन्याय का निवारण कर न्याय का प्रचार कर और उत्तम विद्या के उपदेशों की वृष्टि कर सब मनुष्यों को सुखी करें ॥२१॥
विषय
राजा का सूर्यवत् शासन ।
भावार्थ
जिस प्रकार ( जाः ) उत्पन्न हुआ सूर्य ( दिवे दिवे ) प्रतिदिन (सहशी: कृष्णा: ) एक समान काली रात्रियों को (अप असेधत) दूर करता है और ( अन्यम् अर्धं ) दूसरे आधे को ( असेधत् ) प्राप्त करता है और जिस प्रकार ( वृषभः ) वर्षा का मूल कारण सूर्य ( उद-व्रजे ) जल के गमनयोग्य मार्ग आकाश में ( वस्नयन्ता ) रहना चाहते हुए (वर्चिनं शम्बरं च ) तेजोमय मेघ और जल दोनों को ( अहन् ) आघात करता है उसी प्रकार राजा भी ( जाः ) प्रकट होकर (दिवे दिवे) प्रतिदिन (सदृशीः) एक समान (कृष्णाः) घोर प्रजाकर्षण, प्रजापीड़नकारिणी शत्रु सेनाओं को ( सद्मनः ) अपने स्थान से (अप असेधत्) दूर करे और (अन्यम् ) दूसरे ( अर्धम् ) समृद्ध राष्ट्र को ( असेधत् ) प्राप्त करे । वह ( वृषभ: ) बलवान् होकर (उद-व्रजे) जल के मार्ग नदी आदि के तटों पर ( वर्चिनं ) तेजस्वी ( शम्बरं ) शान्तिनाशक ( वस्न यन्ता दासा ) नाना आच्छादन, तथा वस्त्र एवं निवासादि चाहने वाले ( दासा ) प्रजानाशक शत्रु स्त्री पुरुषों को ( अहन् ) दण्डित करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
'वर्चिन् व शम्बर' का विनाश
पदार्थ
[१] हमारे जीवन में (सद्मन:) = इस शरीर के अन्तर्गत हृदय रूप गृह से, स्थान से (जाः) = उदय होता हुआ (इन्द्र) = ज्ञानसूर्य (दिवे दिवे) = प्रतिदिन (सदृशी:) = समानरूपवाली (कृष्णा:) = अज्ञानान्धकारवाली रात्रियों को (अन्यं अर्धम्) = हमारे से भिन्न दूसरे आधे पशु-पक्षिरूप जगत् में (अपअसेधत्) = दूर भेजता है। हृदयस्थ प्रभु की कृपा से हमारे हृदयों में ज्ञानसूर्य का उदय होता है, वहाँ अज्ञानान्धकार का नाश होता है। मानो, यह अज्ञान रात्रि पशु-पक्षियों के यहाँ चली जाती है । [२] (वृषभः) = सब सुखों व शक्तियों का वर्षण करनेवाले प्रभु (उदव्रजे) = ज्ञान-जल की गतिवाले हमारे शरीर देशों में [उद= जल, व्रज गतौ] (वर्चिनम्) = अति प्रबल काम [असुर] को (च) = तथा (शम्बरम्) = शान्ति को ढप लेनेवाले ईर्ष्यारूप असुर को (अहन्) = नष्ट करते हैं। ज्ञान जल के प्रवाह में सब वासनाएँ धुल जाती हैं। काम नष्ट होकर प्रेम का रूप धारण कर लेता है, और ईर्ष्या नष्ट होकर स्पर्धा, एकदूसरे से आगे बढ़ जाने की भावना के रूप में प्रकट होती है। हम 'हेतौ ईर्ष्यः-फले नेर्ष्यः' बन जाते हैं। हमारे जीवनों में साधनों को प्राप्त करने की कामना बढ़ती है, दूसरे की वृद्धि हमें नहीं जलाती। हम समझ जाते हैं कि ये काम और ईर्ष्या (दासा) = हमारा उपक्षय करनेवाले हैं और (वस्नयन्ता) = शक्ति व शान्ति के विनाशरूप प्रबल मूल्य को चाहते हैं, हमारे शक्ति व शान्ति रूप धन को हर लेते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे जीवन में ज्ञानसूर्य का उदय हो। अज्ञानरात्रि विनष्ट हो । कामासुर व शम्बरासुर का विनाश करके हम शक्ति व शान्ति का अनुभव करें।
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जसे सूर्य व मेघ संपूर्ण पृथ्वीला आकर्षित करून प्रकाश व जल देतात, जसा सूर्य पृथ्वीच्या अर्ध्या भागाला प्रकाशित करतो व वृष्टी करतो, अंधकाराचे निवारण करून सर्वांना सुखी करतो तसेच राजा व प्रजा यांनी सत्याचा स्वीकार व असत्याचा त्याग करून अन्यायाचे निवारण करावे. न्यायाचा प्रचार करून उत्तम विद्येच्या उपदेशाची वृष्टी करावी व सर्व माणसांना सुखी करावे. ॥ २१ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Day by day the sun dispels the equal cover of darkness arisen at night from its abode to the other half of the globe. The mighty solar power of showers breaks the dark vapours concealed in the cloud, strikes the blazing lightning and opens the flood gates of rain to flow into streams on land.$(So does the ruler dispel the darkness of ignorance, injustice and poverty and open the flood - gates of light and knowledge with justice and prosperity.)
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
How should the officers of the State and the people deal with one another is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! as the sun when risen, sets half portion of the globe separately every day and dispels the darkness of this world by its rays, that sun causing the rain, destroys the respondent cloud, in the same manner, the officers of the State and ordinary subjects covering one another should behave.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O men! as the sun and the cloud attracting the as the sun whole world make it endowed with heat and water, illuminates the half of the earth and causes rain, dispels darkness and gladdens all, in the same manner, the officers of the State and the subjects should make all happy by attracting truth, giving up falsehood, removing injustice and propagating justice, showering the sermon of good education.
Foot Notes
(जा:) जायमान: सूर्य: । (जा:) जनी-प्रादुर्भावे -The sun when rising. Here manifesting or rising. (वस्नयन्ता) वस्ममिवाचरन्तौ राजप्रजाजनौ । वस्नम् - वस्त्रम् । = The king and the subjects behaving like covering or clothes.
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