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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 27
    ऋषिः - गर्गः देवता - रथः छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दि॒वस्पृ॑थि॒व्याः पर्योज॒ उद्भृ॑तं॒ वन॒स्पति॑भ्यः॒ पर्याभृ॑तं॒ सहः॑। अ॒पामो॒ज्मानं॒ परि॒ गोभि॒रावृ॑त॒मिन्द्र॑स्य॒ वज्रं॑ ह॒विषा॒ रथं॑ यज ॥२७॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दि॒वः । पृ॒थि॒व्याः । परि॑ । ओजः॑ । उत्ऽभृ॑तम् । व॒न॒स्पति॑ऽभ्यः । परि॑ । आऽभृ॑तम् । सहः॑ । अ॒पाम् । ओ॒ज्मान॑म् । परि॑ । गोभिः॑ । आऽवृ॑तम् । इन्द्र॑स्य । वज्र॑म् । ह॒विषा॑ । रथ॑म् । य॒ज॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दिवस्पृथिव्याः पर्योज उद्भृतं वनस्पतिभ्यः पर्याभृतं सहः। अपामोज्मानं परि गोभिरावृतमिन्द्रस्य वज्रं हविषा रथं यज ॥२७॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दिवः। पृथिव्याः। परि। ओजः। उत्ऽभृतम्। वनस्पतिऽभ्यः। परि। आऽभृतम्। सहः। अपाम्। ओज्मानम्। परि। गोभिः। आऽवृतम्। इन्द्रस्य। वज्रम्। हविषा। रथम्। यज ॥२७॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 27
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः केभ्य उपकारा ग्राह्या इत्याह ॥

    अन्वयः

    हे विद्वँस्त्वं दिवः पृथिव्या वनस्पतिभ्य ओज उद्भृतं सहः पर्याभृतं गोभिरपामोज्मानं पर्यावृतमिन्द्रस्य वज्रं रथं च हविषा परि यज ॥२७॥

    पदार्थः

    (दिवः) विद्युतस्सूर्याद्वा (पृथिव्याः) भूमेरन्तरिक्षाद्वा (परि) (ओजः) बलम् (उद्भृतम्) उत्कृष्टरीत्या धृतम् (वनस्पतिभ्यः) वटादिभ्यः (परि) सर्वतः (आभृतम्) आभिमुख्येन धृतम् (सहः) बलम् (अपाम्) जलानाम् (ओज्मानम्) बलकारिणम् (परि) सर्वतः (गोभिः) किरणैः (आवृतम्) आच्छादितम् (इन्द्रस्य) विद्युतः (वज्रम्) प्रहारम् (हविषा) सामग्र्या दानेन (रथम्) विमानादियानविशेषम् (यज) सङ्गच्छस्व ॥२७॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः सर्वतो बलं गृहीत्वा सूर्य्योऽपामोज्मानं मेघमिव सुखं वर्षयन्ति ते सर्वतः सत्कृता जायन्ते ॥२७॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को किन से उपकार ग्रहण करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे विद्वन् ! आप (दिवः) बिजुली से वा सूर्य्य से (पृथिव्याः) भूमि वा अन्तरिक्ष से (वनस्पतिभ्यः) वट आदि वनस्पतियों से (ओजः) बल (उद्भृतम्) उत्तम रीति से धारण किया गया वा (सहः) बल (परि) सब प्रकार से (आभृतम्) सन्मुख धारण किया गया और (गोभिः) किरणों से (अपाम्) जलों के (ओज्मानम्) बलकारी (परि) सब ओर से (आवृतम्) ढाँपे गये (इन्द्रस्य) बिजुली के (वज्रम्) प्रहार को और (रथम्) विमान आदि वाहन विशेष को (हविषा) सामग्री के दान से (परि, यज) उत्तम प्रकार प्राप्त हूजिये ॥२७॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य सब ओर से बल को ग्रहण करके जलों के बलकारी मेघ को जैसे वैसे सुख को वर्षाते हैं, वे सब प्रकार से सत्कृत होते हैं ॥२७॥

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    विषय

    राजा के नाना कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( दिवः ) सूर्य वा आकाश से और ( पृथिव्याः ) पृथिवी से ( परि उद्भृतं ओजः ) प्राप्त और उत्पन्न हुए तेज, और अन्न तथा ( वनस्पतिभ्यः ) वनस्पतियों से ( परि आभृतं ) प्राप्त किये ( सहः ) उत्तम बल को हे राजन् ! तू ( यज ) एकत्र प्राप्त कर । और (इन्द्रस्य ) सूर्य के ( गोभिः ) किरणों से (आवृतम् ) आच्छादित (अपाम् ओज्मानं) जलों के बल रूप ( वज्रं ) विद्युत रूप तेज और ( रथं ) उत्तम यानादि को भी ( हविषा ) ग्रहण करने के साधनों द्वारा ( यज ) सुसंगत कर । उसी प्रकार हे राजन् ! तू ( हविषा ) अन्न, आदि के बल पर ( इन्द्रस्य वज्रं ) ऐश्वर्यवान शत्रुहन्ता राजा के शस्त्रबल और ( रथं ) रथ या नाभि को जो ( गोभिः परि आवृतम् ) भूमियों से घिरा हो जिसके अधीन नाना देश हों उनको ( यज ) प्राप्त कर । वह राजा का बल कैसा हो – ( दिवः परिभृतम् ) सूर्य से निकले तेज के समान विद्वान् तेजस्वी पुरुष वर्ग से प्राप्त (ओजः ) पराक्रमस्वरूप हो और जो ( पृथिव्याः परि उद्-भृतं ) भूमि से उत्पन्न अन्न के समान परिपोषक, प्रजा बल, और (वनस्पतिभ्यः परि आभृतम् ) बड़े वृक्षों के समान प्रजा के आश्रयप्रद शत्रु हिंसक सैन्य के पालक नायकों द्वारा एकत्र किया गया ( सहः ) शत्रु पराजयकारी बल है उसको और ( अपाम् ओज्मानम् ) आप्त प्रजा वर्गों के पराक्रम को भी ( यज ) एकत्र संगत कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'ओजस्वी व सहस्वी' शरीर-रथ

    पदार्थ

    [१] प्रभु कहते हैं कि हे जीव ! (हविषा) = दानपूर्वक अदन के द्वारा (रथं यज) = तू को अपने साथ संगत कर यह शरीर-रथ वह है जिसमें (दिवः परि) = द्युलोक से (ओजः उद्धृतम्) = ओजस्विता का भरण किया गया है, जिसमें सूर्य-किरणों ने प्राणशक्ति का संचार किया है। (पृथिव्याः परि) = इस विशाल अन्तरिक्ष से [ओजः उद्धृतं ] = ओजस्विता का भरण हुआ है, जिसमें चन्द्र-किरणों ने सुधारस को संचरित किया है। इस शरीर-रथ में (वनस्पतिभ्यः) = वनस्पतियों से (सहः) = बल का पर्याभृतम् भरण हुआ है। पृथिवी से उत्पन्न ओषधि वनस्पतियों के सेवन से यह शरीर नीरोग व सबल बना है। [२] इस शरीर-रथ को तू अपने साथ संगत कर जो (अपां ओज्मानम्) = [आप: रेतो भूत्वा० ] रेतःकणों के ओजवाला है, जिसे रेतः कण ओजस्वी बना रहे हैं। जो (गोभिः) = ज्ञानरश्मियों से (परिआवृतम्) = आच्छादित है । (इन्द्रस्य वज्रम्) = यह शरीर-रथ इन्द्र का वज्र है, जितेन्द्रिय पुरुष का गतिशीलता का साधन है।

    भावार्थ

    भावार्थ- इस शरीर-रथ को 'सूर्य-चन्द्र' ओजस्वी बनाते हैं, वनस्पतियाँ इसमें सहस् का संचार करती हैं। यह रेतः कणों के ओजवाला व ज्ञानेन्द्रियों द्वारा ज्ञानरश्मियों से आच्छादित है। इसे दानपूर्वक अदन से हम अपने साथ संगत करें और गतिशील बनें।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    सूर्य जसा मेघांना जलयुक्त बनवून बलवान बनवितो तशी जी माणसे सगळीकडून बल प्राप्त करून सुखाची वृष्टी करतात त्यांचा सर्वत्र सत्कार होतो. ॥ २७ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Enlightened ruler and scholar, the energy collected and raised from the sun and earth, the energy, vitality and patience received and learnt from the trees and forests, the liquid power of the waters rising and reinforced with rays of the sun, and the forceful current of electric energy, with all these energies together harnessed, create and serve the chariot, the fast progressive social order worthy of your governance.

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