ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 29
उप॑ श्वासय पृथि॒वीमु॒त द्यां पु॑रु॒त्रा ते॑ मनुतां॒ विष्ठि॑तं॒ जग॑त्। स दु॑न्दुभे स॒जूरिन्द्रे॑ण दे॒वैर्दू॒राद्दवी॑यो॒ अप॑ सेध॒ शत्रू॑न् ॥२९॥
स्वर सहित पद पाठउप॑ । श्वा॒स॒य॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । पु॒रु॒ऽत्रा । ते॒ । म॒नु॒ता॒म् । विऽस्थि॑तम् । जग॑त् । सः । दु॒न्दु॒भे॒ । स॒ऽजूः । इन्द्रे॑ण । दे॒वैः । दू॒रात् । दवी॑यः । अप॑ । से॒ध॒ । शत्रू॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उप श्वासय पृथिवीमुत द्यां पुरुत्रा ते मनुतां विष्ठितं जगत्। स दुन्दुभे सजूरिन्द्रेण देवैर्दूराद्दवीयो अप सेध शत्रून् ॥२९॥
स्वर रहित पद पाठउप। श्वासय। पृथिवीम्। उत। द्याम्। पुरुऽत्रा। ते। मनुताम्। विऽस्थितम्। जगत्। सः। दुन्दुभे। सऽजूः। इन्द्रेण। देवैः। दूरात्। दवीयः। अप। सेध। शत्रून् ॥२९॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 29
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्भिः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥
अन्वयः
हे दुन्दुभे ! यथा स जगदीश्वरः पृथिवीमुत द्यां विष्ठितं जगन्मनुतां तेन पुरुत्रेन्द्रेण देवैः सजूस्त्वं शत्रून् दूराद्दवीयोऽप सेध यस्ते कल्याणं मनुतां तमुपास्य सर्वानुपश्वासय ॥२९॥
पदार्थः
(उप) (श्वासय) प्राणय (पृथिवीम्) भूमिमन्तरिक्षं वा (उत) (द्याम्) सूर्य्यं विद्युतं वा (पुरुत्रा) पुरुषु पदार्थेषु भवान् (ते) तव (मनुताम्) विजानातु (विष्ठितम्) विशेषेण स्थितम् (जगत्) यद् गच्छति (सः) (दुन्दुभे) दुन्दुभिरिव गर्ज्जक (सजूः) संयुक्तः (इन्द्रेण) विद्युदस्त्रेण (देवैः) विद्वद्भिर्वीरैः (दूरात्) (दवीयः) अतिशयेन दूरम् (अप) (सेध) अप नय (शत्रून्) ॥२९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यथेश्वरेण पृथिवीसूर्यादि सर्वं जगत्स्वसत्तया स्थापितं तथैव विद्युता मूर्तिमद्द्रव्याण्यभिव्याप्य प्रवर्त्यन्त, ईश्वरोपासनेन विद्युदादिप्रयोगेण दूरस्थानपि शत्रून् विजित्य सकलान् प्रजीवयत ॥२९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वानों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (दुन्दुभे) दुन्दुभि के सदृश गर्जनेवाले ! जैसे (सः) वह जगदीश्वर (पृथिवी) भूमि वा अन्तरिक्ष को और (उत) भी (द्याम्) सूर्य्य वा बिजुली को (विष्ठितम्) विशेष करके स्थित (जगत्) व्यतीत होनेवाले संसार को (मनुताम्) जाने उस ज्ञान से (पुरुत्रा) सम्पूर्ण पदार्थों से हुए (इन्द्रेण) बिजुलीरूप अस्त्र से और (देवैः) विद्वान् वीरों से (सजूः) संयुक्त आप (शत्रून्) शत्रुओं को (दूरात्) दूर से (दवीयः) अति दूर (अप, सेध) हराइये और जो (ते) आपके कल्याण को जाने उसकी उपासना करके सब को (उप, श्वासय) समझाइये ॥२९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो ! जैसे ईश्वर ने पृथिवी और सूर्यादि सम्पूर्ण संसार को अपनी सत्ता से स्थापित किया, वैसे ही बिजुली सम्पूर्ण द्रव्यों में अभिव्याप्त होकर मध्य में प्रविष्ट है, ईश्वर की उपासना और बिजुली आदि के प्रयोगों से दूर पर स्थित भी शत्रुओं को जीत कर सब को जिलाओ ॥२९॥
विषय
उसका उपभोग ।
भावार्थ
हे ( दुन्दुभे ) द्वन्द्व युद्ध में सबसे अधिक प्रकाशित वीर ! हे नक्कारे के समान गर्जने हारे ! हे वृक्ष को कुठार के समान शत्रुको छिन्न भिन्न करने वाले ! अथवा हे शत्रुओं को नाश करने हारे ! तू ( पृथिवीम्) भूमिवासी (उत द्याम् ) तेजस्विनी वा ऐश्वर्यादि को चाहने वाली वा व्यापार करने में लगी प्रजा को ( उप श्वासय ) आश्वासन और उनको प्राणवत् जीवन वृत्ति प्रदान कर । ( ते ) तेरे अधीन ( पुरुत्रा ) बहुत प्रकार के ( जगत् ) गतिशील नाना जंगम प्राणीगण (वि स्थितं) विविध प्रकार से स्थित होकर ( मनुतां ) तेरा मान करे । (सः) वह तू ( इन्द्रेण ) ऐश्वर्यवान् और शत्रुनाशक भूमि पर कृषि अन्न के उत्पादक समृद्ध प्रजावर्ग ( देवैः ) विद्वान् पुरुषों से ( सजूः ) मिलकर उनके सहयोग से ( शत्रून् ) शत्रुओं को ( दूराद् दवीयः ) दूर से भी दूर तक ( अपसेध ) भगादे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
'दुन्दु' शब्द से भयभीत करनेवाली 'दुन्दुभि'
पदार्थ
[१] युद्ध में यदि हमारा पक्ष धार्मिक है तो हमारी दुन्दुभि शत्रुओं को भयभीत कर डालती है। सो कहते हैं कि हे (दुन्दुभे) = दुन्दुभि ! (सः) = वह तू (पृथिवीं उत द्याम्) = पृथिवीलोक व द्युलोक को (उपश्वासय) = अनुप्राणित करनेवाली हो, अपने शब्द से हमारे सैन्यों में सर्वत्र उत्साह का संचार करनेवाली हो । यह (विष्ठितम्) = विशेषरूप से अपने-अपने स्थान में स्थित (जगत्) = लोक (पुरुत्रा) = सर्वत्र (ते मनुताम्) = तेरे शब्द को जाननेवाला हो। [२] हे दुन्दुभे! वह तू (इन्द्रेण) = शत्रुविद्रावक सेनापति व (देवैः) = विजिगीधु सैनिकों के साथ (शत्रून्) = शत्रुओं को (दूरात् दवीय:) = दूर से दूर (अपसेध) = मार भगानेवाली हो । दुन्दुभि के शब्द से ही शत्रुओं के दिल दहल जाएँ और शत्रु भयभीत हो भाग उठें।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! जसे ईश्वराने पृथ्वी व सूर्य इत्यादी संपूर्ण जगाला आपल्या अधिकारात (नियंत्रणात) ठेवलेले आहे तसेच विद्युत संपूर्ण द्रव्यात अभिव्याप्त होऊन त्यात प्रविष्ट असते. ईश्वराची उपासना व विद्युत इत्यादीच्या प्रयोगाने दूर असलेल्या शत्रूंना जिंकून सर्वांना जीवित राहू द्या. ॥ २९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O victorious lord ruler of the world, let the roar of the victory drum fill heaven and earth with a fresh lease of joy and new life. Lord of the whole nation, let the wide world moving and non-moving know of you and your glory. Blow over the world, equipped with armaments of thunder and vision of the wise, ward off the dangers and throw out the enemies far away.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the enlightened persons do-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O thundered like the war drum ! as God knows the earth, the firmament, the sun or electricity and all this world-set in order by Him, so being united with Omnipresent God and electric weapons, drive away your enemies, very far. Adoring God, who knows what is always good for you, put new life in all.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O highly learned persons ! as God has established earth, sun and all this world by His infinite Power, so electricity has been established by Him in all things. Put new life in all, by meditating upon God and by using electricity and other things in various ways. Conquer your enemies—even living in distant places.
Foot Notes
(दुन्दुभे) दुन्दुभिरिव गर्ज्जक। = Thundered like the sun. (सज्जू) संयुक्त:। व + जुषौ-प्रीतिसेवनयोः (तु.) अत्र प्रीत्यर्थ: । = Being united in love.
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