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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 22
    ऋषिः - गर्गः देवता - प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    प्र॒स्तो॒क इन्नु राध॑सस्त इन्द्र॒ दश॒ कोश॑यी॒र्दश॑ वा॒जिनो॑ऽदात्। दिवो॑दासादतिथि॒ग्वस्य॒ राधः॑ शाम्ब॒रं वसु॒ प्रत्य॑ग्रभीष्म ॥२२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र॒स्तो॒कः । इत् । नु । राध॑सः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । दश॑ । कोश॑यीः । दश॑ । वा॒जिनः॑ । अ॒दा॒त् । दिवः॑ऽदासात् । अ॒ति॒थि॒ऽग्वस्य॑ । राधः॑ । शा॒म्ब॒रम् । वसु॑ । प्रति॑ । अ॒ग्र॒भी॒ष्म॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्रस्तोक इन्नु राधसस्त इन्द्र दश कोशयीर्दश वाजिनोऽदात्। दिवोदासादतिथिग्वस्य राधः शाम्बरं वसु प्रत्यग्रभीष्म ॥२२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्रस्तोकः। इत्। नु। राधसः। ते। इन्द्र। दश। कोशयीः। दश। वाजिनः। अदात्। दिवःऽदासात्। अतिथिऽग्वस्य। राधः। शाम्बरम्। वसु। प्रति। अग्रभीष्म ॥२२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 22
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तौ राजप्रजाजनौ परस्परं कथं वर्तेयातामित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यस्ते वाजिनो राधसो दश कोशयीः प्रस्तोकोऽदात्। दशगुणं सम्पादयति यदतिथिग्वस्य दिवोदासात् प्राप्तं राधः शाम्बरं वसु च वयं प्रत्यग्रभीष्म तदिन्नु भवानस्मभ्यं प्रयच्छतु तदिन्नु वयं तुभ्यं दद्याम ॥२२॥

    पदार्थः

    (प्रस्तोकः) यः प्रस्तौति (इत्) एव (नु) सद्यः (राधसः) धनस्य (ते) तव (इन्द्र) सूर्य इव परमैश्वर्ययुक्त (दश) (कोशयीः) याः कोशान् यान्ति ता भूमीः (दश) एतत्संख्याकाः (वाजिनः) बह्वन्नयुक्तस्य (अदात्) ददाति (दिवोदासात्) प्रकाशदातुः (अतिथिग्वस्य) योऽतिथीनागच्छति तस्य (राधः) (शाम्बरम्) शंबरे मेघे भवम् (वसु) जलाख्यं द्रव्यम् (प्रति) (अग्रभीष्म) गृह्णीयाम ॥२२॥

    भावार्थः

    हे राजन् ! यस्ते राष्ट्रेऽसङ्ख्यधनप्रदो वृष्टिकरोऽतिथिसङ्गसेवनो जनो भवेत्तस्य रक्षां त्वं विधेहि। यदस्मान् धनं प्राप्नुयात्तत्तुभ्यं वयं दद्याम यत्त्वामीयात्तदस्मभ्यं देहि ॥२२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वे राजा और प्रजाजन परस्पर कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सूर्य्य के सदृश अत्यन्त ऐश्वर्य्य से युक्त ! जो (ते) आपके (वाजिनः) बहुत अन्नों से युक्त (राधसः) धन की (दश) दश (कोशयीः) कोशों खजानों को प्राप्त होनेवाली भूमियों की (प्रस्तोकः) स्तुति करनेवाला (अदात्) देता है और (दश) दशगुनी सम्पादित करता और जिस (अतिथिग्वस्य) अतिथियों को प्राप्त होनेवाले के (दिवोदासात्) प्रकाश देनेवाले से प्राप्त हुए (राधः) धन को (शाम्बरम्) और मेघ में हुए (वसु) जलनामक द्रव्य को हम लोग (प्रति, अग्रभीष्म) ग्रहण करें उसको (इत्) ही (नु) शीघ्र आप हम लोगों के लिये दीजिये, उसको ही शीघ्र हम लोग आपके लिये देवें ॥२२॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! जो आपके राज्य में असङ्ख्य धनों को देने, वृष्टि करने तथा अतिथियों के सङ्ग का सेवन करनेवाला जन होवे, उसकी रक्षा को आप करिये और जो हम लोगों को धन प्राप्त होवे, उसको आपके लिये हम लोग देवें और जो आपको प्राप्त होवे उसको हम लोगों के लिये दीजिये ॥२२॥

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    विषय

    राजा की मेघवत् स्थिति । उसके ऐश्वर्य का मेघ जल के समान उपभोग ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवन् ! राजन् ! ( प्र स्तोकः इत् नु ) तेरी उत्तम स्तुति करने वाला प्रजाजन ही ( ते ) तुझे ( राधसः ) धनैश्वर्य से पूर्ण ( दश कोशयीः ) कोशों या ख़ज़ानों से भरी पूरी दस भूमियों और ( दश वाजिनः ) बल, वेग, अन्न धनादि से युक्त दशों प्रकार के पदार्थों को भी ( अदात् ) प्रदान करता है । ( दिवः-दासात् ) ज्ञानप्रकाश और भूमि को तेरे हाथ सौंप देने वाले दाता ब्राह्मणवर्ग से प्राप्त (अतिथिग्वस्य ) अतिथिवत् पूज्य होकर सम्मानयोग्य वाणी वा गौ, भूमि को प्राप्त करने वाले तेरे ही ( राधः ) धनैश्वर्य को हम लोग (शाम्बरं वसु) मेघ से बरसे जल के समान समग्र रूप से ( प्रति अग्रभीष्म ) हम प्राप्त करें । प्रजा राजा को सब प्रकार का ऐश्वर्य दे । ब्राह्मणवर्ग राजा को अतिथिवत् पूज्य जान कर उसके हाथ भूमि ऐसे ही सौंपता है जैसे सूर्य मेघ को भूमि देता है । तब उस राजा के ऐश्वर्य का प्रजाजन ऐसे ही उपयोग करे जैसे वे मेघ के जल का उपयोग करते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रस्तोक का प्रभु के प्रति स्वा अर्पण

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र के अनुसार ज्ञान सूर्योदय के होने पर यह आराधक 'प्रस्तोक' बनता है, 'प्रस्तोधेत' [shines ] । हे इन्द्र परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (प्रस्तोक:) = ज्ञान सूर्य से चमकनेवाला यह स्तोता (इत् नु) = ही निश्चय से (राधसः) = ऐश्वर्य के दश (कोशयीः) = दस कोशों को, एक-एक इन्द्रिय की शक्ति एक-एक कोश है, इन दस कोशों को तथा दश (वाजिनः) = इन दस शक्तिशाली इन्द्रियों को ही (ते अदात्) = आपके लिये दे डालता है। ज्ञानी स्तोता अपना सब कुछ आपके प्रति अर्पण करता है, ऐसा करता हुआ ही वह निरहंकार बना रहता है। [२] ये आराधक ऐसा अनुभव करते हैं कि हमने (दिवोदासात्) = [दास्- दाश्-दाने] उस सब ज्ञानों के देनेवाले प्रभु से ही (अतिथिग्वस्य राधः) = [अतिथिं गच्छति] उस महान् अतिथि प्रभु के प्रति जानेवाले आराधक के कार्यसाधक धन को तथा (शाम्बरं वसु) = ईर्ष्या के विनाश से प्राप्त होनेवाले उत्तम निवासजनक धन को (प्रत्यग्रभीष्म) = प्रतिदिन प्राप्त किया है। यह सब ऐश्वर्य उस प्रभु का ही है। प्रभु ने ही हमें उस उस इन्द्रिय की शक्ति को व इन इन्द्रियों को दिया है, ये सब उसी के हैं। इस प्रकार समर्पण करनेवाला आराधक अद्भुत शान्ति को पाता है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम ज्ञान को बढ़ाकर प्रभु की आराधना करते हुए इन सब इन्द्रियों के ऐश्वर्य को व इन्द्रियों को प्रभु के प्रति अर्पित करनेवाले बनें ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा ! तुझ्या राज्यात असंख्य धन देणारे, वृष्टी करणारे, अतिथींचा संग करणारे लोक असतील तर त्यांचे तू रक्षण कर. जर आम्हाला धन प्राप्त झाले तर ते आम्ही तुला देऊ व जे तुला प्राप्त होईल ते आम्हाला दे. ॥ २२ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, lord ruler, the celebrant of your means and materials of success and accomplishment has given ten treasure gifts of land and ten modes of fast transport.$We accept and reciprocate the gifts of the lord’s showers of generosity and hospitality from the celebrant giver of the treasures of means and materials of success, water showers and the gifts of land, home and wealth for sustenance.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should the king and his subjects deal with one another—is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O Indra (king ) ! endowed with great wealth and full of splendor like the sun, your admirer gives ten plots full of wealth and abundant foodstuffs and he makes it tenfold. We get from the giver of light for a hospitable man-wealth and good water from the cloud. Give that to us and we may give the same to you.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king ! protect that man in your state, who is the giver of measureless wealth and showerer of happiness, serving honorable guests. Let us give that wealth to you which we receive from others, and give to us that which you receive.

    Foot Notes

    (शांबरम्) शंबरे मेथे भवम् । नलाख्यं द्रव्यम् । शम्बर इति मेघनाम (NG 1, 10)। = Water in the cloud. (कोषयी:) य कोशान्यान्ति ताभूमी: । = Plots of land. (वाजिन:) बह्वन्नयुक्तस्य । वाज इत्यन्ननाम (NG 2, 7)। = Endowed with abundant food materials. (दिवोदासात् ) प्रकाशदातु: । दासृ-दाने (भ्वा.) ! = Of the giver of light. (अतिथिग्वस्व) योतिथीनागच्छति तस्य। = Of a man who approaches venerable guests for service.

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