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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 16
    ऋषिः - गर्गः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    शृ॒ण्वे वी॒र उ॒ग्रमु॑ग्रं दमा॒यन्न॒न्यम॑न्यमतिनेनी॒यमा॑नः। ए॒ध॒मा॒न॒द्विळु॒भय॑स्य॒ राजा॑ चोष्कू॒यते॒ विश॒ इन्द्रो॑ मनु॒ष्या॑न् ॥१६॥

    स्वर सहित पद पाठ

    शृ॒ण्वे । वी॒रः । उ॒ग्रम्ऽउ॑ग्रम् । द॒म॒ऽयन् । अ॒न्यम्ऽअ॑न्यम् । अ॒ति॒ऽने॒नी॒यमा॑नः । ए॒ध॒मा॒न॒ऽद्विट् । उ॒भय॑स्य । राजा॑ । चो॒ष्कू॒यते॑ । विशः॑ । इन्द्रः॑ । म॒नु॒षया॑न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शृण्वे वीर उग्रमुग्रं दमायन्नन्यमन्यमतिनेनीयमानः। एधमानद्विळुभयस्य राजा चोष्कूयते विश इन्द्रो मनुष्यान् ॥१६॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शृण्वे। वीरः। उग्रम्ऽउग्रम्। दमऽयन्। अन्यम्ऽअन्यम्। अतिऽनेनीयमानः। एधमानऽद्विट्। उभयस्य। राजा। चोष्कूयते। विशः। इन्द्रः। मनुष्यान् ॥१६॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 16
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे अमात्या ! यो वीर उग्रमुग्रं दमायन्नन्यमन्यमतिनेनीयमान एधमानद्विळुभयस्य राजेन्द्रो विशो मनुष्याञ्चोष्कूयते तमहं न्यायेशं शृण्वे ॥१६॥

    पदार्थः

    (शृण्वे) (वीरः) शौर्यादिगुणोपेतः (उग्रमुग्रम्) तेजस्विनं तेजस्विनम् (दमायन्) दमनं कुर्वन् (अन्यमन्यम्) भिन्नं भिन्नम् (अतिनेनीयमानः) भृशं न्यायव्यवस्थां प्रापयन् (एधमानद्विट्) यो वर्धमानान् वर्धमानान् द्वेष्टि सः (उभयस्य) राजप्रजाजनसमुदायस्य (राजा) न्यायविनयाभ्यां प्रकाशमानः (चोष्कूयते) भृशमाह्वयति (विशः) प्रजाः (इन्द्रः) विद्याविनयधरः (मनुष्यान्) ॥१६॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! यो मनुष्यो दुष्टान्दुष्टाँस्ताडयञ्छ्रेष्ठान् सत्कुर्वन्नन्यस्य वृद्धिं दृष्ट्वा द्वेष्टॄन् दञ्डयन् प्रसन्नांश्च सत्कुर्वन् सर्वेषां वादिप्रतिवादिनां वचांसि यथावच्छ्रुत्वा सत्यं न्यायं करोति स एव राजा भवितुमर्हति ॥१६॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा कैसा होवे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मन्त्री जनो ! जो (वीरः) शूरता आदि गुणों से युक्त जन (उग्रमुग्रम्) तेजस्वी तेजस्वी जन को (दमायन्) इन्द्रियों का निग्रह कराता हुआ और (अन्यमन्यम्) दूसरे दूसरे को (अतिनेनीयमानः) अत्यन्त न्याय की व्यवस्था को प्राप्त कराता हुआ (एधमानद्विट्) वृद्धि को प्राप्त होते हुओं से द्वेष करनेवाला और (उभयस्य) राजा तथा प्रजाजन समुदाय का (राजा) न्याय और विनय से प्रकाशमान राजा (इन्द्रः) विद्या और विनय को धारण करनेवाला (विशः, मनुष्यान्) प्रजाजनों को (चोष्कूयते) निरन्तर पुकारता है, उसको मैं न्यायेश (शृण्वे) सुनता हूँ ॥१६॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यो ! जो मनुष्य दुष्टों-दुष्टों को ताड़न करता, श्रेष्ठों-श्रेष्ठों का सत्कार करता, अन्य की वृद्धि देख कर द्वेष करनेवालों को दण्ड देता और प्रसन्नों का सत्कार करता हुआ सम्पूर्ण वादी और प्रतिवादी के वचनों को यथावत् सुन के सत्य न्याय को करता है, वही राजा होने के योग्य है ॥१६॥

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    विषय

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    भावार्थ

    ( वीरः ) वीर पुरुष ( उग्रम् उग्रम् ) प्रत्येक उग्र, तेजस्वी पुरुष को (दमायन् ) दमन करता हुआ, और (अन्यम् अन्यम्) भिन्न २, नाना व्यक्तियों को ( अति नेनीयमानः ) एक दूसरे से बढ़ाता हुआ, ( एधमान-विट्) अपने से बढ़ते हुए, प्रतिस्पर्धी शत्रु से द्वेष करता हुआ ( उभयस्य राजा ) शासकवर्ग और शास्यवर्ग दोनों के बीच चमकता हुआ, दोनों का राजा होकर ( विशः ) अपने शासन में प्रविष्ट, या बसे हुए ( मनुष्यान्) मनुष्यों को वह ( इन्द्रः ) ऐश्वर्यवान्, ऐश्वर्यप्रद पुरुष ( चोष्कूयते) बुलाता है, अपने अधीन उन पर शासन करता है।

    टिप्पणी

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    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    एधमानविट्

    पदार्थ

    [१] वे प्रभु (वीरः शृण्वे) = शत्रुओं को विशेषरूप से कम्पित करनेवाले सुने जाते हैं । (उग्रं उग्रम्) = प्रत्येक उग्र [प्रबल] शत्रु के (दमायन्) = बाधन को चाहते हुए, (अन्यं अन्यम्) = आज एक को और कल दूसरे को (अतिनेनीयमानः) = अतिशयेन आगे और आगे ले चल रहे हैं। प्रभु ही हमारे शत्रुओं का बाधन करते हैं और हमें ऐश्वर्य की स्थिति में प्राप्त कराते हैं। [२] (एधमानद्विट्) = धन के दृष्टिकोण से बढ़े हुए अयज्ञशील पुरुष को ये प्रभु प्रीति का पात्र नहीं बनाते, यह अयज्ञशील धनी प्रभु का प्रिय नहीं होता। (उभयस्य राजा) = प्रभु ऐहिक व आमुष्मिक दोनों धनों के राजा हैं। (इन्द्रः) = ये परमैश्वर्यशाली प्रभु (विशः मनुष्यान्) = निवेशक मनुष्यों को, परिचरण शक्ति-सेवा करनेवाले मनुष्यों को (चोष्कूयते) = सब ऐश्वर्यों को देते हैं [चोष्यमाण: ददत् नि० ६ | २२] । वस्तुतः प्रभु से प्राप्त कराये गये ये ऐश्वर्य उन्हें और अधिक लोक सेवा के योग्य बनाते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु हमारे शत्रुओं को नष्ट करते हैं। कर्मानुसार हमें उन्नतिपथ पर ले चलते हैं। अयज्ञशील व्यक्ति प्रभु के प्रिय नहीं होते। लोक सेवकों को प्रभु आवश्यक धनों को प्राप्त कराते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! जो सर्व दुष्टांचे ताडन करतो, सर्व श्रेष्ठांचा सत्कार करतो, दुसऱ्याची समृद्धी पाहून द्वेष करणाऱ्यांना दंड देतो व प्रसन्न लोकांचा सत्कार करतो, वादी, प्रतिवादीचे वचन ऐकून न्याय करतो तोच राजा होण्यायोग्य असतो. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    I hear that Indra, potent lord, controller of all proud and passionate ones, leading all up and down by their performance, favouring the good and punishing the rising proud and arrogant, rules all communities of humanity, good and evil, and calls them up for justice and dispensation.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should that king be is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O ministers! I hear him to be the administrator of justice, who, being a hero, subdues or tames every strong man and taking all different persons to the course of justice, hater of the haughty (growing at the cost of others) shining with justice and humility among both the officers of the State and the subjects and bearer of knowledge and humility, calls upon all (to discharge their duties).

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men ! he alone is fit to be a ruler, who punishes the wicked, honors good men, punishes those, who are jealous of those who make progress and respects the happy and who, administers true justice after hearing the arguments of both the portioner and the respondent.

    Foot Notes

    (चोष्कूयते) भृशमाह्वयति । चोष्कूयते इति पदनाम (NG 4, 3) पद-गतौ गतेस्त्रयोऽर्था: ज्ञान गमनं प्राप्तिश्च अत्र ज्ञानार्थं ग्रहण कृत्वा ज्ञापयति- कर्तव्य-पालनार्थं भृशम् आह्वयती त्यर्थम् | = Invokes or calls upon (to discharge their duties). (राजा) न्यायविनयाभ्यां प्रकाशमान: । राजृ-दीप्तौ। (भ्वा०)। = Shining with justice and humility.

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