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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 30
    ऋषिः - गर्गः देवता - दुन्दुभिः छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    आ क्र॑न्दय॒ बल॒मोजो॑ न॒ आ धा॒ निः ष्ट॑निहि दुरि॒ता बाध॑मानः। अप॑ प्रोथ दुन्दुभे दु॒च्छुना॑ इ॒त इन्द्र॑स्य मु॒ष्टिर॑सि वी॒ळय॑स्व ॥३०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    आ । क्र॒न्द॒य॒ । बल॑म् । ओजः॑ । नः॒ । आ । धाः॒ । निः । स्त॒नि॒हि॒ । दुः॒ऽइ॒ता । बाध॑मानः । अप॑ । प्रो॒थ॒ । दु॒न्दु॒भे॒ । दु॒च्छुनाः॑ । इ॒तः । इन्द्र॑स्य । मु॒ष्टिः । अ॒सि॒ । वी॒ळय॑स्व ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    आ क्रन्दय बलमोजो न आ धा निः ष्टनिहि दुरिता बाधमानः। अप प्रोथ दुन्दुभे दुच्छुना इत इन्द्रस्य मुष्टिरसि वीळयस्व ॥३०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    आ। क्रन्दय। बलम्। ओजः। नः। आ। धाः। निः। स्तनिहि। दुःऽइता। बाधमानः। अप। प्रोथ। दुन्दुभे। दुच्छुनाः। इतः। इन्द्रस्य। मुष्टिः। असि। वीळयस्व ॥३०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 30
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे दुन्दुभे ! त्वं नो बलमोज आ धाः शत्रूनाक्रन्दयास्मान्निः ष्टनिहि दुरिता बाधमानो दुच्छुना इव वर्त्तमानाञ्छत्रूनप प्रोथ। यतस्त्वमिन्द्रस्य मुष्टिरसीतोऽस्मान् वीळयस्व ॥३०॥

    पदार्थः

    (आ) समन्तात् (क्रन्दय) रोदयाऽऽह्वय वा (बलम्) (ओजः) पराक्रमम् (नः) अस्मभ्यम् (आ) (धाः) धेहि (निः) नितराम् (स्तनिहि) शब्दय (दुरिता) दुष्टव्यसनानि (बाधमानः) (अप) (प्रोथ) जेतुं पर्याप्तो भव शत्रूनसमर्थान् कुरु (दुन्दुभे) दुन्दुभिरिव वर्त्तमान (दुच्छुनाः) दुष्टश्वान इव वर्त्तमानान् (इतः) अस्मात् (इन्द्रस्य) विद्युतः (मुष्टिः) मुष्टिवद्दुष्टानां हन्ता (असि) (वीळयस्व) बलयस्व ॥३०॥

    भावार्थः

    हे राजंस्त्वमीदृशं बलं धरेर्येन दुर्व्यसनानि दुष्टाः शत्रवो नश्येयुः प्रजाः पोषयितुं शक्नुयाः ॥३०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (दुन्दुभे) दुन्दुभी के समान वर्त्तमान ! आप (नः) हम लोगों के लिये (बलम्) सामर्थ्य को और (ओजः) पराक्रम को (आ, धाः) धरिये और शत्रुओं को (आ) सब ओर से (क्रन्दय) रुलाइये और बुलाइये तथा हम लोगों को (निः) अत्यन्त (स्तनिहि) शब्द कराइये और (दुरिता) दुष्ट व्यसनों को (बाधमानः) नष्ट करते हुए (दुच्छुनाः) दुष्ट कुत्तों के समान वर्त्तमान शत्रुओं के (अप, प्रोथ) जीतने को पर्याप्त हूजिये अर्थात् शत्रुओं को असमर्थ करिये जिससे आप (इन्द्रस्य) बिजुली की (मुष्टिः) मुष्टि के समान दुष्टों के मारनेवाले (असि) हो (इतः) इससे हम लोगों को (वीळयस्व) बलयुक्त करिये ॥३०॥

    भावार्थ

    हे राजन् ! आप ऐसे बल को धारण करिये जिससे दुष्ट व्यसन, और दुष्ट शत्रु नष्ट होवें और प्रजाओं के पोषण करने को समर्थ होवें ॥३०॥

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    विषय

    इन्द्र की दुन्दुभि ।

    भावार्थ

    हे ( दुन्दुभे ) नक्कारे के समान घोर गर्जन करने हारे ! तू शत्रुओं को ( आ क्रन्दय ) खूब ललकार और रुला । तू ( नः ) हममें ( बलं ओजः ) बल और पराक्रम (आ धाः) धारण करा । और (दुरिता) बुरे व्यसनों को ( बाधमानः ) दूर करता हुआ तू ( निःस्तनिहि ) गर्जना कर । ( इतः ) इस राष्ट्र से तू ( दुच्छुनाः ) हमें दुःखदायी दुष्ट कुत्तों के स्वभाव वाले, वा हमारे दुःखों को सुख मानने वाले शत्रुजनों को ( अप प्रोथ ) दूर मार भगा । तू (इन्द्रस्य) विद्युत् के ( मुष्टिः ) मुके के समान शत्रुसंहारक वा समृद्ध राष्ट्र का मुष्टिवत् संगठित बल ( असि ) है । वह तू सदा ( वीडयस्व ) पराक्रम किया कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'दुरिता-दुच्छुना' बाधमानः

    पदार्थ

    [१] हे दुन्दुभे! तू (आक्रन्दय) = शत्रुओं को रुलानेवाली बन। (नः) = हमारे मनों में (बलं ओजः) = बल और ओज को (आधाः) = स्थापित कर। हमारा युद्ध का वाद्य शत्रुओं को भयभीत करनेवाला हो और हमारे अन्दर उत्साह का संचार करनेवाला हो। सब (दुरिता बाधमानः) = बुराइयों को रोकती हुई (निष्टनिहि) = तू ध्वनि कर, तेरी गर्जना हमारे जीवनों में से सब बुराइयों को दूर करनेवाली हो । जीवन को युद्ध यात्रा समझेंगे तो विलास से ऊपर उठेंगे ही, [२] हे (दुन्दुभे) = भेरी स्वर ! (दुच्छुना) = सब दुष्ट सुखों को, भोग-विलासों को या शत्रुओं को (इतः) = यहाँ से (अपप्रोथ) = सुदूर हिंसित कर। तू (इन्द्रस्य) = इस जितेन्द्रिय पुरुष की (मुष्टिः असि) = शत्रुओं को विनष्ट करनेवाली मुष्टि है। (वीळयस्व) = हमारे जीवनों को सुदृढ़ बना ।

    भावार्थ

    भावार्थ- दुन्दुभि का शब्द शत्रुओं को भयभीत करें, हमें सोत्साहित करे। यह हमारे जीवनों से दुरितों व दुष्ट सुखों को दूर करे और हमें शत्रुहनन के लिये दृढ़ शक्ति प्रदान करे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे राजा! तू असे बल धारण कर, ज्यामुळे दुष्ट व्यसन, दुष्ट शत्रू नष्ट व्हावा व प्रजेचे पोषण करण्यास समर्थ व्हावे. ॥ ३० ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Call out the forces, challenge the enemies all round, inspire us with vigour and splendour, roar like thunder, repel all evils and negativities, scare away the barking maligners. You are the strike of lightning, rise and let us rise too with might and main.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The same subject of enlightened persons-is continued.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O thunderer like the war-drum ! thunder out strength and fill us full of vigor. Make your enemies weep out of fear. Inspire us with powerful voice. Driving away all vices and evils make your enemies, who are like bad dogs, powerless. As you are like the fist of electricity i.e. destroyer of the wicked, make us strong and firm.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O king! uphold such a strength in you, that all vicious and wicked foes may disappear and you be able to nourish your subjects.

    Foot Notes

    (स्तनिहि) शब्दय । स्तन-देवशब्दे (चुरा.) । = Make sound to inspire. (प्रोथ ) जेतु पर्याप्तो भव शत्रूनसमर्थान् कुरू। = Be strong enough to conquer.

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