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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 2
    ऋषिः - गर्गः देवता - सोमः छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    अ॒यं स्वा॒दुरि॒ह मदि॑ष्ठ आस॒ यस्येन्द्रो॑ वृत्र॒हत्ये॑ म॒माद॑। पु॒रूणि॒ यश्च्यौ॒त्ना शम्ब॑रस्य॒ वि न॑व॒तिं नव॑ च दे॒ह्यो॒३॒॑हन् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । स्वा॒दुः । इ॒ह । मदि॑ष्ठः । आ॒स॒ । यस्य॑ । इन्द्रः॑ । वृ॒त्र॒ऽहत्ये॑ । म॒माद॑ । पु॒रूणि॑ । यः । च्यौ॒त्ना । शम्ब॑रस्य । वि । न॒व॒तिम् । नव॑ । च॒ । दे॒ह्यः॑ । हन् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयं स्वादुरिह मदिष्ठ आस यस्येन्द्रो वृत्रहत्ये ममाद। पुरूणि यश्च्यौत्ना शम्बरस्य वि नवतिं नव च देह्यो३हन् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम्। स्वादुः। इह। मदिष्ठः। आस। यस्य। इन्द्रः। वृत्रऽहत्ये। ममाद। पुरूणि। यः। च्यौत्ना। शम्बरस्य। वि। नवतिम्। नव। च। देह्यः। हन् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 2
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कं सेवित्वा किं कुर्य्युरित्याह ॥

    अन्वयः

    य इन्द्रो राजा योऽयमिह स्वादुर्मदिष्ठ आस यस्य पानेन ममाद तत्पीत्वा यथा सूर्य्यः शम्बरस्य नव च नवतिं विहंस्तथा देह्यः सन् वृत्रहत्ये शत्रूणां पुरूणि च्यौत्ना हन्यात् स एव विजयी स्यात् ॥२॥

    पदार्थः

    (अयम्) (स्वादुः) स्वादयुक्तः (इह) (मदिष्ठः) अतिशयेनानन्दप्रदः (आस) (यस्य) सूर्य्य इव प्रतापवान् (वृत्रहत्ये) सङ्ग्रामे (ममाद) हर्षति (पुरूणि) बहूनि (यः) (च्यौत्ना) बलानि। च्यौत्नमिति बलनाम। (निघं०२.९) (शम्बरस्य) मेघस्य (वि) (नवतिम्) (नव, च) नवनवतिप्रकारा मेघगतयः (देह्यः) उपचेतुं योग्यः (हन्) हन्ति ॥२॥

    भावार्थः

    हे मनुष्या ! भवन्तो यस्योत्तमः स्वादुर्यस्माद्बलबुद्धिपराक्रमा वर्धन्ते तत्सेवनेन शत्रूञ्जित्वा निष्कण्टकं राज्यं सेवन्ताम् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य किसका सेवन करके क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    (यः) जो (इन्द्रः) सूर्य्य के सदृश प्रतापी राजा और जो (अयम्) यह (इह) संसार में (स्वादुः) अच्छे स्वाद से युक्त (मदिष्ठः) अतिशय आनन्द देनेवाले (आस) होता और (यस्य) जिसके पान करने से (ममाद) प्रसन्न होता है, उसका पान करके जैसे सूर्य प्रतापयुक्त (शम्बरस्य) मेघ के (नव, च) नव (नवतिम्) नब्बे प्रकार मेघगतियों का (वि, हन्) नाश करता है, उस प्रकार से (देह्यः) वृद्धि करने के योग्य हुआ (वृत्रहत्ये) सङ्ग्राम में शत्रुओं की (पुरूणि) बहुत (च्यौत्ना) सेनाओं का नाश करे, वही विजयी होवे ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जिसका उत्तम स्वाद और जिससे बल बुद्धि तथा पराक्रम बढ़ते हैं, उसके सेवन से शत्रुओं को जीत कर निष्कण्टक राज्य का सेवन करो ॥२॥

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    विषय

    सोम, उसका अप्रतिम बल, शत्रु के ९९ प्रकार के बलों के नाशक ।

    भावार्थ

    ( अयं ) यह सोम अर्थात् ऐश्वर्य, बल, और विद्वत्समूह देने वाला, (इह ) इस राज्य शासन में वा लोक में ( मदिष्ठः ) अतिहर्षदायक और तृप्तिकारक (आस ) होता है (यस्य ) जिसके द्वारा (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् शत्रुहन्ता नायक, (वृत्र-हत्ये) मेघ के विनाश करने वाले सूर्य के तुल्य शत्रु के नाश के अवसर में ( ममाद ) अति प्रसन्न होता है । (यः) जो ( शम्बरस्य ) मेघ के समान ही प्रजा के सुखों के विनाशक शत्रु के ( नवतिं नव ) ९९ प्रकार के ( च्यौना ) बलों और चालों को भी ( वि अहन् ) विविध उपायों से विनाश करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    न्यायनवें आसुरपुरियों का विध्वंस

    पदार्थ

    [१] (अयम्) = यह सोम (स्वादुः) = आस्वादित करने योग्य है । (इह) = यहाँ (मदिष्ठः आस) = अतिशयेन मादयिता होता है । (यस्य) = जिस सोम के पान से (इन्द्रः) = यह जितेन्द्रिय पुरुष (वृत्रहत्ये) = वासनारूप वृत्र के विनाश में (ममाद) = उल्लासमय हुआ। [२] (यः) = जो सोम (शम्बरस्य) = शान्ति पर परदा डाल देनेवाली ईर्ष्या के (पुरूणि) = बहुत अधिक (च्यौत्ना) = बलों को हन्- नष्ट करता है च - और नवतिं नव-निन्यानवे देह्यः = उपचित [= बढ़ी हुई] वृद्धि को प्राप्त हुई हुई आसुरपुरियों को [हत् =] विनष्ट करता है। सोम के रक्षण के होने पर ईर्ष्या व अन्य आसुरभाव विनष्ट हो जाते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम सुरक्षित होकर [क] जीवन को मधुर बनाता है, [ख] वासना विनाश जीवन को उल्लासमय करता है, [ग] ईर्ष्या के बल को समाप्त कर देता है, [घ] आसुरभावों विनष्ट करता है।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो ! ज्याचा स्वाद उत्तम असतो व ज्यामुळे बल, बुद्धी, पराक्रम वाढतात ते पदार्थ ग्रहण करावेत व शत्रूंना जिंकून निष्कंटक बनावे. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    It is delicious, most exhilarating here in the business of life. Indra, mighty ruler, having drunk of it, exults in the battle against want and wickedness for the achievement of prosperity and, waxing in strength and passion, destroys the multitudinous forces of evil and breaks ninety and nine strongholds of darkness like the sun breaking clouds for rain.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men take and what should they do is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    A king who is full of vigor like the sun, become very powerful by drinking this invigorating Soma juice and as the sun smites down ninety-nine movements of the cloud. That king being very much advanced in power, defeats all the strength of the foes.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O men! by taking that invigorating juice which is very delicious and which augments strength intellect and vigor, conquer your enemies and enjoy thornless (complete) kingdom.

    Foot Notes

    (वृत्रहत्ये) सङ्ग्रामे । त्रतुर्ये इति संग्रामनाम (NG 2, 17 ) । तूरी गति त्वरणहिंसनयो: (दिवा.) तस्मात् न तुर्यें 'ब्रहत्ये इति पर्याववाचक शब्दो | = In the battle. (च्यौला) बलानिच्योत्नमिति बलनाम (NG 2, 9) ' = Strength, powers. (शम्वरस्य) मेघस्य । शम्बर इति मेघनाम (NG 1, 10)। = Of the cloud. (देह्यः) उपचेतु योग्य: । दिह-उपचये (अदाः) उपचय: द्धिः । = Advanced in power.

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