ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 5
अ॒यं वि॑दच्चित्र॒दृशी॑क॒मर्णः॑ शु॒क्रस॑द्मनामु॒षसा॒मनी॑के। अ॒यं म॒हान्म॑ह॒ता स्कम्भ॑ने॒नोद्द्याम॑स्तभ्नाद्वृष॒भो म॒रुत्वा॑न् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठअ॒यम् । वि॒द॒त् । चि॒त्र॒ऽदृशी॑कम् । अर्णः॑ । शु॒क्रऽस॑द्मनाम् । उ॒षसा॑म् । अनी॑के । अ॒यम् । म॒हान् । म॒ह॒ता । स्कम्भ॑नेन । उत् । द्याम् । अ॒स्त॒भ्ना॒त् । वृ॒ष॒भः । म॒रुत्वा॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अयं विदच्चित्रदृशीकमर्णः शुक्रसद्मनामुषसामनीके। अयं महान्महता स्कम्भनेनोद्द्यामस्तभ्नाद्वृषभो मरुत्वान् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठअयम्। विदत्। चित्रऽदृशीकम्। अर्णः। शुक्रऽसद्मनाम्। उषसाम्। अनीके। अयम्। महान्। महता। स्कम्भनेन। उत्। द्याम्। अस्तभ्नात्। वृषभः। मरुत्वान् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथायं वृषभो मरुत्वान्त्सूर्य्यः शुक्रसद्मनामुषसामनीके चित्रदृशीकमर्णो विदत्। योऽयं महान् महता स्कम्भनेन द्यामुदस्तभ्नात्तं कार्य्योपयोगिनं कुरुत ॥५॥
पदार्थः
(अयम्) (विदत्) प्राप्नोति (चित्रदृशीकम्) आश्चर्य्यदर्शनम् (अर्णः) जलम् (शुक्रसद्मनाम्) शुद्धस्थानानाम् (उषसाम्) प्रभातवेलानाम् (अनीके) सैन्ये (अयम्) (महान्) (महता) (स्कम्भनेन) धारणेन (उत्) (द्याम्) (अस्तभ्नात्) स्तभ्नाति (वृषभः) वर्षकः (मरुत्वान्) मरुतो बहवो वायवो विद्यन्ते यस्मिन् सः ॥५॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! यूयं सूर्य्यवत्प्रातः समयमारभ्य प्रयत्नेन विद्याः प्रकाश्य सुखं लभध्वम् ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (अयम्) यह (वृषभः) वृष्टि करनेवाला (मरुत्वान्) बहुत वायु विद्यमान जिसमें ऐसा सूर्य्य (शुक्रसद्मनाम्) शुद्ध स्थानों और (उषसाम्) प्रभात वेलाओं की (अनीके) सेना में (चित्रदृशीकम्) आश्चर्य्ययुक्त दर्शन जिसका ऐसे (अर्णः) जल को (विदत्) प्राप्त होता है और जो (अयम्) यह (महान्) बड़ा (महता) बड़े (स्कम्भनेन) धारण से (द्याम्) प्रकाश को (उत्, अस्तभ्नात्) ऊपर को उठाया है, उसको कार्य्य का उपयोगी करो ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! आप लोग सूर्य्य के सदृश प्रातःकाल से लेकर प्रयत्न से विद्याओं को प्रकाशित करके सुख को प्राप्त होओ ॥५॥
विषय
missing
भावार्थ
जिस प्रकार ( शुक्रसद्मनाम् ) जल वा तेज का आश्रय या ओस और प्रकाश रूप फैला देने वाली उषाओं के ( अनेकों ) भाग में ( अयम् ) यह सूर्य ( चित्र-दृशीकम् अर्णः विदत् ) आश्चर्य से देखने योग्य जल वा तेज को प्राप्त कराता है उसी प्रकार ( अयम् ) यह तेजस्वी राजा या क्षत्र वर्ग भी ( शुक्र-सद्मनाम् ) उत्तम गृह बना कर रहने वाली ( उषसाम् ) उसको चाहने वाली प्रजाओं वा शत्रु को भस्म करने वाली प्रजाओं के (अनीके ) प्रमुख भाग वा दल सैन्य में ( चित्रं दृशीकम् अर्णः ) अद्भुत दर्शनीय तेज को (विदत) प्राप्त करे और करावे । ( अयं ) और वह ( मरुत्वान् ) वायुवत् बलवान् वीर पुरुषों और प्रजा वर्गों का स्वामी, (वृषभः) मेघवत् वा सूर्यवत् ही प्रजा पर सुखों की वर्षा करने वाला होकर ( महता स्कम्भनेन द्याम् ) बड़े भारी थामने वाले सूबल सेर्य जिस प्रकार आकाश के चन्द्रादि पिण्डों को धारण करता है उसी प्रकार ( महता स्कभ्मनेन ) बड़े भारी थामने के बल से ( महान् ) महान् होकर ( द्याम् अस्तभ्नात् ) चाहने वाली प्रजा वा पृथिवी को अपने वश करे । ( २ ) इसी प्रकार गृहपति कामना योग्य शुद्ध गृह में बसने वाली धाराओं के सहयोग में ( अर्णः ) धन प्राप्त करे । बलवान् वीर्य सेचन में समर्थ और दृढ़ प्राणवान् होकर बड़े बल से बलवान् होकर (द्याम् ) नाना कामना वाली पत्नी को धारण करे । इति त्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
वृषभ: मरुत्वान्
पदार्थ
[१] (अयम्) = यह सोम (शुक्रसद्मनाम्) = शुक्र, अर्थात् निर्मल [शुच्] अन्तरिक्ष है सदन [गृह] जिनका, उन उषाकालों के (अनीके) = प्रमुख भाग में (चित्रदृशीकम्) = अद्भुत दर्शनवाली (अर्णः) = कर्मों में प्रेरक ज्ञान-ज्योति को (विदत्) = प्राप्त कराता है। सोमरक्षणवाला पुरुष उषाकालों में स्वाध्याय के द्वारा अपनी ज्ञान-ज्योति को बढ़ानेवाला होता है। [२] (अयम्) = यह सोम (महान्) = अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। (महता स्कम्भनेन) = महान् आधार के द्वारा यह सोम (द्याम्) = मस्तिष्करूप द्युलोक को (उद् अस्तभ्नात्) = उत्कृष्ट स्थिति में थामता है। सोम ही मस्तिष्क में ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है, यही सुरक्षित हुआ-हुआ बुद्धि को तीव्र बनाता है। साथ ही यह सोम (वृषभ:) = हमारे में शक्ति का सेचन करता है और (मरुत्वान्) = यह सोम प्रशस्त प्राणोंवाला है। प्राणशक्ति को यह सोम ही बढ़ाता है ।
भावार्थ
भावार्थ- शरीर में सुरक्षित सोम [१] बुद्धि को तीव्र बनाकर ज्ञान ज्योति को बढ़ाता है, [२] शरीर का सेचन करता है, [३] प्राणशक्ति का विकास करता है।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! तुम्ही सूर्याप्रमाणे प्रातःकालापासूनच प्रयत्नपूर्वक विद्या प्रकट करून सुख प्राप्त करा. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
This generous and exuberant energy of the universe commanding the force of the currents of nature’s inherent power vests the beatific ocean of the glorious sunrays of immaculate beauty of the mornings. It is great and, by its mighty gravitational force, sustains the solar region in position above.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject-is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! as this sun, which has many airs or gases within it or around which causes rain (by drawing up the water) creates worth seeing water in the army of or near the pure dawns and with great upholding power it upholds the heaven. You should use that sun for doing mighty works.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O highly learned persons! you should enjoy happiness by revealing the light of knowledge like the sun from Moring onward.
Translator's Notes
ओजो वै वीर्य मरुतः (जैमिनीयोप) 3,3, 9) So मरुत्वान् also means mighty. मरुतो वृष्टिम अद्भुत श्रावयन्ति ( मैत्रायरिन्स, 2, 4, 8) So it is clear that the word मरुत is used for monsoon winds. मरुतो- रश्वय: (जैमिनीयोप 3, 174, ता. अ. 12, 1 ) । So the sun is मरुत्वान् as it has so many rays.
Foot Notes
(मरुत्वान्) मरुतो बहवो बाययो विद्यन्ते यस्मिन् सः । ओजो वै वीर्यं मरुतः (जैमिनीयोप 3, 3, 9). So मरुत्वान् means also mighty मरुतो दृष्टिम् अमृतश्रयावयन्ति (मैत्रायणसं. 2, 4, 7) मरुतो रश्मयः (जैमिनीयोप 3, 1, 74 14,12,1). So the sun is as it his so many rays.-The sun containing many airs, or winds with in. (स्कंभनेन) धारणेव| = By upholding power.
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