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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 1
    ऋषिः - गर्गः देवता - सोमः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स्वा॒दुष्किला॒यं मधु॑माँ उ॒तायं ती॒व्रः किला॒यं रस॑वाँ उ॒तायम्। उ॒तो न्व१॒॑स्य प॑पि॒वांस॒मिन्द्रं॒ न कश्च॒न स॑हत आह॒वेषु॑ ॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वा॒दुः । किल॑ । अ॒यम् । मधु॑ऽमान् । उ॒त । अ॒यम् । ती॒व्रः । किल । अ॒यम् । रस॑ऽवान् । उ॒त । अ॒यम् । उ॒तो इति॑ । नु । अ॒स्य । प॒पि॒ऽवांस॑म् । इन्द्र॑म् । न । कः । च॒न । स॒ह॒ते॒ । आ॒ऽह॒वेषु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वादुष्किलायं मधुमाँ उतायं तीव्रः किलायं रसवाँ उतायम्। उतो न्व१स्य पपिवांसमिन्द्रं न कश्चन सहत आहवेषु ॥१॥

    स्वर रहित पद पाठ

    स्वादुः। किल। अयम्। मधुऽमान्। उत। अयम्। तीव्रः। किल। अयम्। रसऽवान्। उत। अयम्। उतो इति। नु। अस्य। पपिऽवांसम्। इन्द्रम्। न। कः। चन। सहते। आऽहवेषु ॥१॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 1
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 30; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ किं कृत्वा राजा शत्रुभिरसोढव्यः स्यादित्याह ॥

    अन्वयः

    हे शूरवीरा ! योऽयं स्वादुः किल उतायं मधुमान् किलाऽयं तीव्र उतायं रसवानोषधिसारोऽस्ति। अस्योतो पपिवांसमिन्द्रमाहवेषु नु कश्चन न सहते ॥१॥

    पदार्थः

    (स्वादुः) सुस्वादयुक्तः (किलः) निश्चये (अयम्) (मधुमान्) मधुरादिगुणयुक्तः (उत) (अयम्) (तीव्रः) तेजस्वी वेगवान् (किल) (अयम्) (रसवान्) महौषधिप्रशस्तरसप्रचुरः (उत) (अयम्) (उतो) (नु) क्षिप्रम् (अस्य) (पपिवांसम्) पिबन्तम् (इन्द्रम्) राजादिकं शूरवीरम् (न) निषेधे (कः) (चन) कश्चिदपि (सहते) (आहवेषु) सङ्ग्रामेषु ॥१॥

    भावार्थः

    ये ब्रह्मचर्य्यजितेन्द्रियत्वादियुक्ताऽऽहारविहारैः शरीरात्मबलयुक्ता भवन्ति तान् सङ्ग्रामेषु सोढुं शत्रवो न शक्नुवन्ति ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब एकतीस ऋचावाले सैंतालीसवें सूक्त का प्रारम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में क्या करके राजा शत्रुओं से नहीं सहने योग्य होवे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे शूरवीर जनो ! जो (अयम्) यह (स्वादुः) सुन्दर स्वाद से युक्त (किल) निश्चय करके (उत) और (अयम्) यह (मधुमान्) मधुरादि गुणों से युक्त (किल) निश्चय करके (अयम्) यह (तीव्रः) तेजस्वी और वेगयुक्त (उत) और (अयम्) यह (रसवान्) बड़ी ओषधि का प्रशंसित रसयुक्त सार है (अस्य) इसके (उतो) भी (पपिवांसम्) पीनेवाले (इन्द्रम्) राजा आदि शूरवीर को (आहवेषु) सङ्ग्रामों में (नु) शीघ्र (कः) (चन) कोई भी (न) नहीं (सहते) सहता है ॥१॥

    भावार्थ

    जो ब्रह्मचर्य्य, जितेन्द्रियत्व और युक्त आहार-विहारों से शरीर और आत्मा के बल से युक्त होते हैं, उनको सङ्ग्रामों में सहने को शत्रु समर्थ नहीं हो सकते हैं ॥१॥

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    विषय

    सोम, उसका अप्रतिम बल, शत्रु के ९९ प्रकार के बलों के नाशक ।

    भावार्थ

    ( अयं ) यह ऐश्वर्य और औषधि अन्नादि का उत्तम रस और विद्वज्जन समूह वा बल ( किल ) अवश्य ( स्वादु: ) अन्न के समान स्वादयुक्त, सुखजनक ( मधुमान् ) मधुर मधु से युक्त ओषधि रसवत् ही मधुर और गुणकारी, ( उत अयं तीव्रः ) और यह तीव्र रस वाले ओषधि रस के समान ही वेग से कार्य करने वाला हो, ( किल अयं रसवान् उत ) और वह निश्चय से रस अर्थात् बलयुक्त भी हो ( उतो नु ) और ( अस्यपपिवांसम् इन्द्रम् ) जिस प्रकार ओषधि को पान करने वाले पुरुष को बल की प्रतिस्पर्धा में कोई नहीं जीतता है उसी प्रकार ( अस्य ) इस ऐश्वर्य वा विद्वान् प्रजामय राष्ट्र के ( पपिवांसम् ) पालन करने वाले ( इन्द्रं ) समृद्ध राजा को भी (आहवेषु ) युद्धों में (कश्चन न) कोई भी नहीं (सहते ) पराजित कर सके ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    'स्वादु, मधुमान्, तीव्र, रसवान्' सोम

    पदार्थ

    [१] (किल) = निश्चय से (अयम्) = यह सोम (स्वादुः) = जीवन को स्वादवाला बनाता है। (उत) = और (अयम्) = यह (मधुमान्) = वाणी में माधुर्य का संचार करनेवाला है। (किल) = निश्चय से (अयम्) = यह (तीव्रः) = रोगकृमियों के संहार के लिये बड़ा उग्र है। (उत) = और नीरोगता के द्वारा (अयं रसवान्) = यह जीवन को रसवाला बनाता है। [२] (उत उ) = और निश्चय से (नु) = अब (अस्य पपिवांसम्) = इसका खूब पान करनेवाले इस (इन्द्रम्) = जितेन्द्रिय पुरुष को कश्चन कोई भी (आहवेषु) = युद्धों में न सहते नहीं पराभूत कर पाता है। न इसे रोग और नां ही वासनाएँ दबा पाती हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम शरीर में पिया जाने पर रोगों को नष्ट करके जीवन को मधुर बनाता है, वासनाओं को नष्ट करके जीवन को रसवान् बनाता है। सोमरक्षक अपराजित होता है।

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    मराठी (1)

    विषय

    या सूक्तात सोम, प्रश्नोत्तर, विद्युत, राजा, प्रजा, सेना व वाद्यांनी भूषित कृत्यांचे वर्णन असल्यामुळे या सूक्ताच्या अर्थाची पूर्व सूक्तार्थाबरोबर संगती जाणावी.

    भावार्थ

    जे ब्रह्मचर्य, जितेंद्रियत्व व युक्त आहार-विहाराने शरीर व आत्म्याचे बल वाढवितात त्यांना युद्धात शत्रू पराजित करण्यास समर्थ होऊ शकत नाहीत. ॥ १ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Soma: of course it is delicious, honey sweet, and it is sharp and strong and intense, and also it has wonderful flavour. And when Indra, the mighty one, has happily drunk of this soma, this nectar of life, none can withstand him in battles.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    By doing what should a king become unbearable for enemies--is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O heroes! this Soma (juice of the invigorating herbs) is very delicious and full of sweetness. It is strong and rich in sap. No one can conquer (or resist) Indra or brave king when he has drunk this Soma.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    No foes can conquer those in battles, who are endowed with physical and spiritual power by the observance of Brahmcharya (abstinence-self-control), regularity and proper food.

    Foot Notes

    (माहवेषु) सङ्ग्रयेषु । आहवे इति संग्रामनाम (NG 2, 17) = In battles.

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