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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 9
    ऋषिः - गर्गः देवता - इन्द्र: छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    वरि॑ष्ठे न इन्द्र व॒न्धुरे॑ धा॒ वहि॑ष्ठयोः शताव॒न्नश्व॑यो॒रा। इष॒मा व॑क्षी॒षां वर्षि॑ष्ठां॒ मा न॑स्तारीन्मघव॒न्रायो॑ अ॒र्यः ॥९॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वरि॑ष्ठे । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । व॒न्धुरे॑ । धाः॒ । वहि॑ष्ठयोः । श॒त॒ऽव॒न् । अश्व॑योः । आ । इष॑म् । आ । व॒क्षि॒ । इ॒षाम् । वर्षि॑ष्ठाम् । मा । नः॒ । ता॒री॒त् । म॒घ॒ऽव॒न् । रायः॑ । अ॒र्यः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वरिष्ठे न इन्द्र वन्धुरे धा वहिष्ठयोः शतावन्नश्वयोरा। इषमा वक्षीषां वर्षिष्ठां मा नस्तारीन्मघवन्रायो अर्यः ॥९॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वरिष्ठे। नः। इन्द्र। वन्धुरे। धाः। वहिष्ठयोः। शतऽवन्। अश्वयोः। आ। इषम्। आ। वक्षि। इषाम्। वर्षिष्ठाम्। मा। नः। तारीत्। मघऽवन्। रायः। अर्यः ॥९॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 9
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 31; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स राजा कान् प्रति कथं वर्त्तेतेत्याह ॥

    अन्वयः

    हे शतावन्मघवन्निन्द्र ! रायोऽर्यस्त्वं वहिष्ठयोरश्वयोर्वरिष्ठे वन्धुरे रथेन न आ धाः। इषमावक्षि नो वर्षिष्ठामिषां मा तारीत् ॥९॥

    पदार्थः

    (वरिष्ठे) अतिशयेन वरे (नः) अस्मान् (इन्द्र) (वन्धुरे) प्रेमबन्धने (धाः) धेहि (वहिष्ठयोः) अतिशयेन वोढ्रोः (शतावन्) शतानि बलानि विद्यन्ते यस्य तत्सम्बुद्धौ (अश्वयोः) क्षिप्रं गमयित्रोः (आ) (इषम्) (आ) (वक्षि) आवह (इषाम्) अन्नादीनाम् (वर्षिष्ठाम्) अतिशयेन वृद्धाम् (मा) (नः) अस्मान् (तारीत्) तारयेः (मघवन्) बहुधनयुक्त (रायः) धनस्य (अर्यः) स्वामी ॥९॥

    भावार्थः

    प्रजासेनाजनैरेवं राजा प्रेरणीयो भवानस्मानुत्तमेषु यानेषु संस्थाप्य पुष्कलं धनं नयतु येनास्माकं वञ्चनं कदाचिज्जना मा कुर्य्युः ॥९॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह राजा किन के प्रति कैसा वर्त्ताव करे, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (शतावन्) सेनाओं से युक्त (मघवन्) बहुत धनवाले (इन्द्र) ऐश्वर्य्यवान् राजन् ! (रायः) धन के (अर्यः) स्वामी आप (वहिष्ठयोः) अतिशय ले चलनेवाले (अश्वयोः) शीघ्र पहुँचानेवालों के (वरिष्ठे) अतिशय श्रेष्ठ (वन्धुरे) प्रेम बन्धन में वाहन से (नः) हम लोगों को (आ, धाः) सब प्रकार से धारण करिये तथा (इषम्) अन्न को (आ, वक्षि) प्राप्त हूजिये और (नः) हम लोगों को (वर्षिष्ठाम्) अतिशय वृद्ध (इषाम्) अन्न आदिकों को (मा) नहीं (तारीत्) अलग करिये ॥९॥

    भावार्थ

    प्रजा और सेना के जनों को चाहिये कि राजा को ऐसी प्रेरणा करें कि आप हम लोगों को उत्तम वाहनों में उत्तम प्रकार बैठाकर अधिक धन प्राप्त कराइये, जिससे हम लोगों के वञ्चन को कभी मनुष्य न करें अर्थात् हम लोगों को कभी न ठगें ॥९॥

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    विषय

    अधीन दो पुरुषों की नियुक्ति ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! अन्न के देने हारे ! तू (वरिष्ठे ) बहुत बड़े और अति उत्तम ( बन्धुरे ) प्रेमयुक्त बन्धन में (नः आधाः ) हमें रख । और उत्तम प्रबन्धयुक्त राष्ट्र में हमें स्थापित कर । और ( वहिष्ठयोः ) खूब सुख से वहन करने में समर्थ ( अश्वयोः ) दो घोड़ों के आश्रय पर जिस प्रकार रथ को सुख से ले जाते हैं उसी प्रकार (वहिष्ठयोः ) राज्य कार्य-भार को वहन करने वाले दो उत्तम पुरुषों के आश्रय पर हे (शतावन् ) सैकड़ों ऐश्वर्यों व सैकड़ों वीरों के स्वामिन् ! शतक्रतो ! शतपते ! ( इषां ) सेनाओं में से ( वर्षिष्ठाम् इषम् ) खूब शरवर्षा करने वाली बहुत बड़ी शेना को ( आ वक्षि ) धारण कर। और ( इषं वर्षिष्ठाम् इषम् ) अन्नों के बीच में से बहुत बढ़े हुए अन्न सम्पदा को हमें प्रदान कर । हे ( मघवन् ) उत्तम ऐश्वर्य के स्वामिन् ! तू ( अर्य: ) स्वामी ( नः रायः ) हमारे धनों को ( मा तारीत् ) विनष्ट न कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    बन्धुर रथ, वहिष्ठ अश्व

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (नः) = हमें (वरिष्ठे) = उरुतम, विशाल व (वन्धुरे) = सुन्दर [beautiful] शरीर-रथ में धा धारण करिये। हमारा शरीर-रथ विशाल व सुन्दर हो । हे (शतावन्) = सैंकड़ों धनों के धारण करनेवाले प्रभो ! (वहिष्ठयोः) उत्तमता से वहन करनेवाले (अश्वयोः) = ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रियरूप अश्वों में आ [धा:] = स्थापित करिये। हमारे ज्ञानेन्द्रिय व कर्मेन्द्रिय रूप अश्व उत्तम हों। [२] (इषां वर्षिणां इषम्) = अन्नों में सर्वोत्तम अन्न को आवक्षि प्राप्त कराइये। हम उत्कृष्ट सात्त्विक भोजन को करें। हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो ! (नः) = हमारे (रायः) = ऐश्वर्यों को (अर्यः) = स्वामी होते हुए आप (मा तारीत्) = नष्ट न करें। हमें आपकी कृपा से आवश्यक धन प्राप्त हों। आप ही हमारे स्वामी हैं, आपने ही तो हमें धनों को प्राप्त कराना है।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमारा शरीर-रथ व इन्द्रियाश्व उत्तम हों। हमें उत्तम अन्न व धन प्राप्त हो ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    प्रजा व सेनेने राजाला अशी प्रेरणा करावी की, तुम्ही आम्हाला उत्तम वाहनांत बसवून पुष्कळ धन प्राप्त करून द्या, ज्यामुळे आम्हाला कुणी फसवू नये. ॥ ९ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, ruler and guardian of the people, master and controller of the wealth and power of the world, let us ride and abide in the best chariot of our choice in your well managed system of governance run by the strongest and most efficient leaders and forces. O lord of a hundred powers and actions, bring us the best and most abundant food and sustenance, energy and power. Let no one as master tread over our wealth, power, and basic rights of life and freedom.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    How should that king deal with whom is told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O opulent king ! endowed with hundreds of riches, provide us the best chariot-seat, drawn by two swift horses, and associated with us with love. Bring us the best among all viands. Do not keep us away from good food materials.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    A king should be urged by the people of the army and his subjects to bring them abundant wealth by seating them in good chariots, so that people may not cheat them.

    Foot Notes

    (इषाम्) अन्नादीनाम् । अन्नं वा इषम् ( कौषी. 2, 8, 5) । = Of food and other things. (वन्धुरे) प्रमवन्धने | = In the bond of love. (शतावन्) शतानि वलानि विश्चन्ते यस्य तत्सम्बुद्धौ। = One who. has hundreds of strength.

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