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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 47 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 28
    ऋषिः - गर्गः देवता - रथः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    इन्द्र॑स्य॒ वज्रो॑ म॒रुता॒मनी॑कं मि॒त्रस्य॒ गर्भो॒ वरु॑णस्य॒ नाभिः॑। सेमां नो॑ ह॒व्यदा॑तिं जुषा॒णो देव॑ रथ॒ प्रति॑ ह॒व्या गृ॑भाय ॥२८॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्र॑स्य । वज्रः॑ । म॒रुता॑म् । अनी॑कम् । मि॒त्रस्य॑ । गर्भः॑ । वरु॑णस्य । नाभिः॑ । सः । इ॒माम् । नः॒ । ह॒व्यद्ऽआ॑तिम् । जु॒षा॒णः । देव॑ । र॒थ॒ । प्रति॑ । ह॒व्या । गृ॒भा॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रस्य वज्रो मरुतामनीकं मित्रस्य गर्भो वरुणस्य नाभिः। सेमां नो हव्यदातिं जुषाणो देव रथ प्रति हव्या गृभाय ॥२८॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रस्य। वज्रः। मरुताम्। अनीकम्। मित्रस्य। गर्भः। वरुणस्य। नाभिः। सः। इमाम्। नः। हव्यऽदातिम्। जुषाणः। देव। रथ। प्रति। हव्या। गृभाय ॥२८॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 28
    अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुना राज्ञा विद्युता किं साधनीयमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे देव रथ विद्वन् राजंस्त्वं यो मरुतामनीकमिवेन्द्रस्य वज्रो मित्रस्य गर्भो वरुणस्य नाभिरस्ति स न इमां हव्यदातिं जुषाणः सन् हव्या प्रति ददाति तं त्वं प्रति गृभाय ॥२८॥

    पदार्थः

    (इन्द्रस्य) विद्युतः (वज्रः) प्रहारः शब्दो वा (मरुताम्) मनुष्याणाम् (अनीकम्) सैन्यमिव (मित्रस्य) प्राणस्य (गर्भः) मध्यस्थः (वरुणस्य) श्रेष्ठस्य वायोः (नाभिः) बन्धनम् (सः) (इमाम्) (नः) अस्माकम् (हव्यदातिम्) दातव्यदानक्रियाम् (जुषाणः) सेवमानः (देव) विद्वन् (रथ) रमणीय (प्रति) प्रतीतौ (हव्या) आदातुमर्हाणि (गृभाय) गृहाण ॥२८॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो ! विद्युदादिपदार्थैः सर्वमूर्त्तद्रव्यान्तःस्थैः कर्मभिर्युक्तां सेनां सम्पाद्य विजयेनालङ्कृता भवन्तु ॥२८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर राजा को बिजुली से क्या सिद्ध करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (देव, रथ) सुन्दर विद्वन् राजन् ! आप जो (मरुताम्) मनुष्यों की (अनीकम्) सेना के सदृश (इन्द्रस्य) बिजुली की (वज्रः) धमक वा शब्द (मित्रस्य) प्राण के (गर्भः) मध्य में स्थित और (वरुणस्य) श्रेष्ठ वायु का (नाभिः) बन्धन है (सः) वह (नः) हम लोगों की (इमाम्) इस (हव्यदातिम्) देने योग्य दान की क्रिया को (जुषाणः) सेवन करता हुआ (हव्या) ग्रहण करने योग्यों को देता है, उसको आप (प्रति, गृभाय) प्रतीति से ग्रहण करिये ॥२८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वान् जनो ! बिजुली आदि पदार्थों और सम्पूर्ण मूर्त्त द्रव्यों के मध्य में वर्त्तमान कर्म्मों से युक्त सेना को करके विजय से शोभित हूजिये ॥२८॥

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    विषय

    इन्द्र का वज्र ।

    भावार्थ

    इन्द्र का वज्र । हे (देव) विजय के इच्छुक ! हे (रथ) रम्यस्वभाव ! वा रथवत् राष्ट्र के प्रजापालन को अपने कन्धों लेकर चलने हारे राजन् ! तू ( इन्द्रस्य ) ऐश्वर्य से सम्पन्न राष्ट्र का ( वज्रः ) बल पराक्रम रूप है ! तू (मरुताम् अनीकम् ) समस्त मनुष्यों का सैन्यवत् प्रमुख, एवं बलशाली है । तू ( मित्रस्य गर्भः ) मित्र राजवर्ग के अध्यक्ष में स्थित उनको भी अपने वश करने वाला है, तू (वरुणस्य नाभिः) श्रेष्ठ, पुरुष वर्ग का ‘नाभि’ अर्थात् उनके बीच केन्द्र के समान उनके अपने से सम्बद्ध करने वाला है । ( सः ) वह तू (नः) हमारी ( इमां ) इस ( हव्य-दातिम् ) ग्रहण करने योग्य भेट आदि के दान को ( जुषाणः ) प्रेम से सेवन करता हुआ ( हव्या ) ग्राह्य पदार्थों को ( प्रति गृभाय ) ग्रहण कर ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥

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    विषय

    मित्रस्य गर्भः, वरुणस्य नाभिः

    पदार्थ

    [१] यह शरीर-रथ (इन्द्रस्य वज्रः) = जितेन्द्रिय पुरुष का वज्र है, गतिशीलता का साधन है। (मरुतां अनीकम्) = प्राणों का इसमें बल है । (मित्रस्य गर्भः) = स्नेहभाव को यह अपने अन्दर धारण करनेवाला है। (वरुणस्य नाभिः) = निर्देषता को यह अपने में बाँधनेवाला है [गह बन्धने] । [२] हे देवरथ-ज्ञान किरणों से द्योतमान [परि गोभिरावृतम् ४७ । २७] शरीर-रथ अथवा सब व्यवहारों के साधक शरीर-रथ ! (सः) = वह तू (नः) = हमारी (इमाम्) = इस (हव्यदातिम्) = हव्य के देने की क्रिया को, यज्ञादि क्रियाओं को (जुषाणः) = प्रीतिपूर्वक सेवन करता हुआ हव्या हव्य पदार्थों को प्रतिगृभाय ग्रहण करनेवाला बन । अर्थात् दानपूर्वक अदन करनेवाला बन तथा सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन कर

    भावार्थ

    भावार्थ- यह शरीर-रथ जितेन्द्रिय पुरुष का गतिशीलता का साधन बने। प्राणों के बल को, स्नेह व निर्देषता को धारण करे। यज्ञशील हो। यज्ञशेष के रूप में सात्त्विक पदार्थों का ही सेवन करे।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! विद्युत इत्यादी पदार्थात व सर्व मूर्त द्रव्यात कर्म करणारी सेना तयार करून विजयाने सुशोभित व्हा. ॥ २८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Enlightened ruler, lord of grace and pilot of the nation, loving and kind to participants in yajnic governance, you are the thunder and lightning of the cloud break of showers, you are the power and splendour of the people, you are offspring of the light of sun and love of divinity, you are the centre spring of justice and discrimination. Lord ruler, accept this offer of homage as our share of Raja-dharma in the service of the system.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should a king accomplish with electricity-is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned and charming king ! take and properly utilize that stroke or sound of electricity, which is like the army of the heroes, like the embryo of the Prana (vital energy) and like the nave or Centre of the best air in giving various useful articles.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O highly learned persons ! build an army endo- wed with the internal actions of electricity and other articles and be adorned with achieving victory.

    Foot Notes

    (वज्रः) प्रहारः शब्दो वा । = Stroke or sound. (अनीकम्) संन्यमिव । = Like an army. (मित्रस्य) प्राणस्य । प्राणो वे मित्रः (Stph 8, 4, 2, 6)। = Of the Prana (vital energy ). (वरुणस्य) श्र ेष्ठस्य वायोः । वातो वरुणः (मैत्रायणी सं. 4, 8, 5)। = Of the most acceptable air. (रथ) रमणीय । रथः रममाणोऽस्मिस्तिष्ठतीतिवा (NKT 9, 2, 11 )। = Charming, beautiful.

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