ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 47/ मन्त्र 25
ऋषिः - गर्गः
देवता - प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः
छन्दः - विराड्गायत्री
स्वरः - षड्जः
महि॒ राधो॑ वि॒श्वज॑न्यं॒ दधा॑नान्भ॒रद्वा॑जान्त्सार्ञ्ज॒यो अ॒भ्य॑यष्ट ॥२५॥
स्वर सहित पद पाठमहि॑ । राधः॑ । वि॒श्वऽज॑न्यम् । दधा॑नान् । भ॒रत्ऽवा॑जान् । स॒र्ञ्ज॒यः । अ॒भि । अ॒य॒ष्ट॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
महि राधो विश्वजन्यं दधानान्भरद्वाजान्त्सार्ञ्जयो अभ्ययष्ट ॥२५॥
स्वर रहित पद पाठमहि। राधः। विश्वऽजन्यम्। दधानान्। भरत्ऽवाजान्। सर्ञ्जयः। अभि। अयष्ट ॥२५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 47; मन्त्र » 25
अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
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अष्टक » 4; अध्याय » 7; वर्ग » 34; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किं कुर्यादित्याह ॥
अन्वयः
य सार्ञ्जयो महि विश्वजन्यं राधो दधानान् भरद्वाजानभ्यष्ट स राजा सम्राट् स्यात् ॥२५॥
पदार्थः
(महि) महत् (राधः) धनम् (विश्वजन्यम्) विश्वाञ्जनयितुं योग्यं विश्वसुखजनकं वा (दधानान्) धारकान् (भरद्वाजान्) ये वाजानन्नादीन् भरन्ति तान् (सार्ञ्जयः) यो विविधान्न्याययुक्तान् व्यवहारान् सृजति तस्यापत्यम् (अभि) आभिमुख्ये (अयष्ट) अभिसङ्गच्छेत ॥२५॥
भावार्थः
यो ब्रह्मचर्य्येण शरीरात्मानौ बलिष्ठौ कृत्वा सकलैश्वर्य्यमुन्नीयोत्तमान् पुरुषान् सङ्गृह्णाति स एव राजा राज्यमुन्नेतुमर्हेत् ॥२५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
जो (सार्ञ्जयः) अनेक प्रकार के न्याययुक्त व्यवहारों को बनानेवाले का सन्तान (महि) बड़े (विश्वजन्यम्) संसार से वा सम्पूर्ण से उत्पन्न होने योग्य वा सम्पूर्ण सुख को उत्पन्न करनेवाले (राधः) धन को (दधानान्) धारण करनेवाले (भरद्वाजान्) अन्न आदि के धारणकर्त्ताओं के (अभि, अयष्ट) सन्मुख जावे, मेघावी वह राजा चक्रवर्ती होवे ॥२५॥
भावार्थ
जो ब्रह्मचर्य्य से शरीर और आत्मा को बलिष्ठ कर और सम्पूर्ण ऐश्वर्य्य को बढ़ाय के उत्तम पुरुषों को ग्रहण करता है, वही राजा राज्य के बढ़ाने के योग्य होवे ॥२५॥
विषय
missing
भावार्थ
( सायः ) नाना न्याययुक्त राज्य-कार्यों को करने में समर्थ पुरुषों का अधिपति राजा ( विश्वजन्यं ) सर्वजनहितकारी (महि राधः) बड़े भारी धन को ( दधानान्) धारण करने वाले ( भरद्वाजान् ) ऐश्वर्य अन्नादि के द्वारा प्रजा का पालन करने में समर्थ ज्ञानी पुरुषों को (अभि अयष्ट) आदर पूर्वक प्रदान करे । इति चतुत्रिंशो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गर्ग ऋषिः । १ – ५ सोमः । ६-१९, २०, २१-३१ इन्द्रः । २० - लिंगोत्का देवताः । २२ – २५ प्रस्तोकस्य सार्ञ्जयस्य दानस्तुतिः । २६–२८ रथ: । २९ – ३१ दुन्दुभिर्देवता ॥ छन्दः–१, ३, ५, २१, २२, २८ निचृत्त्रिष्टुप् । ४, ८, ११ विराट् त्रिष्टुप् । ६, ७, १०, १५, १६, १८, २०, २९, ३० त्रिष्टुप् । २७ स्वराट् त्रिष्टुप् । २, ९, १२, १३, २६, ३१ भुरिक् पंक्तिः । १४, १७ स्वराटू पंकिः । २३ आसुरी पंक्ति: । १९ बृहती । २४, २५ विराड् गायत्री ।। एकत्रिंशदृचं सूक्तम् ॥
विषय
साञ्जय: [सृ+जि]
पदार्थ
[१] प्रभु गतिशील पुरुषों को विजय प्राप्त कराते हैं ['सृ+जि'] सो 'साञ्जय' कहलाते हैं । ये प्रभु (भरद्वाजान्) = संयम द्वारा अपने में शक्ति का भरण करनेवाले पुरुषों को (अभ्ययष्ट) = अपने साथ संगत करते हैं । 'नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः' निर्बल से ये प्रभु प्राप्य नहीं। [२] ये प्रभु उनको प्राप्त होते हैं, जो (राधः) = कार्यसाधक धनों को (दधानान्) = धारण करते हैं। उस धन को जो (महि) = पूजनीय है, अर्थात् प्रशस्त साधनों से कमाया गया है तथा (विश्वजन्यम्) = सब लोकों के लिये हितकर है, जिस धन का विनियोग प्राजापत्य यज्ञ में होता है नकि भोग-विलास में ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु उनको प्राप्त होते हैं जो [क] उत्तम मार्ग से धनों का अर्जन करके उसका लोकहित के कार्यों में विनियोग करते हैं तथा [ख] संयम द्वारा अपने में शक्ति को भरते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
जो ब्रह्मचर्याने शरीर, आत्मा बलवान करून संपूर्ण ऐश्वर्य वाढवितो व उत्तम पुरुषांचा स्वीकार करतो तोच राजा राज्य वाढविण्यायोग्य असतो. ॥ २५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Let the ruler, descendant of the creators of all lawful forms of wealth, support and maintain the scholars and scientists who create, provide and manage the great wealth and power of universal value.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a king do-is further told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
That king can become a sovereign, who being the son of a man, who makes many just dealings associates with the upholders of knowledge, food grains and the great wealth that is bestower of happiness to all, or which can produce many odd articles.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
That king alone can make his state advanced, who making his body and soul powerful by the observance of Brahmacharya (abstinence), having multiplied all kinds of wealth, and gathers under him the best persons.
Foot Notes
(साञ्जयः) यो विविधान्याययुक्तान् व्यवहारानन् सृजति तस्यापत्यम् । = The son of a man who makes various just dealings, (भरद्वाजान्) ये वाजानन्नादीन् भरन्ति तान् । वाज इति अन्ननाम (NG 2, 7) वाज इति बलनाम (NG 2, 9) वज-गतौ (स्वा.) गतेस्त्रिष्वर्येषु ज्ञानार्थं ग्रहणमन | = Upholders of food grains, knowledge and strength.
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