ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 10
विप्रं॒ होता॑रम॒द्रुहं॑ धू॒मके॑तुं वि॒भाव॑सुम् । य॒ज्ञानां॑ के॒तुमी॑महे ॥
स्वर सहित पद पाठविप्र॑म् । होता॑रम् । अ॒द्रुह॑म् । धू॒मऽके॑तुम् । वि॒भाऽव॑सुम् । य॒ज्ञाना॑म् । के॒तुम् । ई॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
विप्रं होतारमद्रुहं धूमकेतुं विभावसुम् । यज्ञानां केतुमीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठविप्रम् । होतारम् । अद्रुहम् । धूमऽकेतुम् । विभाऽवसुम् । यज्ञानाम् । केतुम् । ईमहे ॥ ८.४४.१०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 10
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 37; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 37; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
With prayer and adoration we honour and approach Agni, omniscient lord vibrant in existence, giver of fulfilment, free from jealousy, rising in flaming fragrance, universal lord of light, wealth and honour, and symbolic ensign of yajna.
मराठी (1)
भावार्थ
याचे तात्पर्य असे की, उपासकाच्या मनात ईश्वराचे गुण निर्माण व्हावेत व उपासकही संपूर्ण मानवी सद्गुणांनी संयुक्त व्हावेत. ॥१०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
विप्रं=उपासकानामभीष्टपूरकं मेधाविनं वा होतारम्=दातारम् । अद्रुहम्=अद्रोग्धारम् अशत्रुत्वात् । धूमकेतुम्=धूमानां धूमावृतानामज्ञानां केतुं ज्ञानप्रदम् । विभावसुं=विभासयितारम् । पुनः । यज्ञानां केतुं=प्रज्ञापकमीशम् । ईमहे=अभीष्टं याचामहे ॥१० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हम उपासकगण परमात्मा से अभीष्ट की (ईमहे) याचना करते हैं, जो ईश (विप्रम्) सर्वज्ञानमय और अभीष्ट पूरक है (होतारम्) दाता (अद्रुहम्) शत्रु न होने के कारण द्रोहरहित (धूमकेतुम्) अज्ञानावृत जनों को ज्ञानदाता (विभावसुम्) सबमें प्रदीपक और (यज्ञानाम्+केतुम्) यज्ञों का ज्ञापक है । उससे हम प्रार्थना करें ॥१० ॥
भावार्थ
अनेक विशेष देने से तात्पर्य यह है कि उपासक के मन में ईश्वर के गुण बैठ जाएँ और वह उपासक भी सम्पूर्ण माननीय सद्गुणों से संयुक्त होवे ॥१० ॥
विषय
यज्ञ का नेता अग्नि।
भावार्थ
हम ( विप्रम् ) विद्वान् ( होतारम् ) ज्ञानप्रद, उत्तम उपदेष्टा, ( अद्रुहं ) द्रोहरहित, अहिंसापरायण, निर्द्वेष, ( धूम-केतुम् ) अज्ञान मोहादि के नाशक, सत् ज्ञान से युक्त, ( विभा-वसुम् ) विशेष कान्ति से युक्त, कान्ति से अन्यों को आच्छादित वा प्रभावित करने वाले, ( यज्ञानां केतुम् ) यज्ञों के जानने वाले विद्वान् वा प्रभु से हम ( ईमहे ) याचना करें। इति सप्तत्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'विप्र-विभावसु' प्रभु
पदार्थ
[१] (यज्ञानां) = सब यज्ञों के (केतुं) = प्रकाशक [प्रज्ञापक] प्रभु से (ईमहे) = याचना करते हैं। उस प्रभु से याचना करते हैं, जो (विप्रं) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले हैं। [२] वे प्रभु (होतारं) = सब कुछ देनेवाले हैं। (अद्रुहं) = द्रोहशून्य हैं। (धूमकेतुं) = वासनाओं को प्रकम्पित करनेवाले ज्ञान को देनेवाले हैं। (विभावसुम्) = ज्योतिरूप धनवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ-यज्ञों के प्रकाशक प्रभु से हम यही याचना करते हैं, वे हमें शक्ति दें कि हम अपना पूरण करते हुए दानशील, द्रोहशून्य व ज्ञान द्वारा वासनाओं को कम्पित करनेवाले ज्ञानमय बन पाएँ ।
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