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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 25
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    अग्ने॑ धृ॒तव्र॑ताय ते समु॒द्राये॑व॒ सिन्ध॑वः । गिरो॑ वा॒श्रास॑ ईरते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अग्ने॑ । धृ॒तऽव्र॑ताय । ते॒ । स॒मु॒द्राय॑ऽइव । सिन्ध॑वः । गिरः॑ । वा॒श्रासः॑ । ई॒र॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अग्ने धृतव्रताय ते समुद्रायेव सिन्धवः । गिरो वाश्रास ईरते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अग्ने । धृतऽव्रताय । ते । समुद्रायऽइव । सिन्धवः । गिरः । वाश्रासः । ईरते ॥ ८.४४.२५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 25
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 40; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of light and life, our yearning voices of love and adoration for you flow free and reach you, lord ruler and keeper of the laws of nature in existence, as rivers flow to join the sea.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हा शरीरातील जीव ईश्वराचा सखा व सेवक आहे. तो आपल्या स्वामीचे महान ऐश्वर्य चिरकालापासून पाहत आहे. जरी तो शरीरबद्ध असल्यामुळे काही काळासाठी स्वामीपासून विमुख होत आहे तरी त्याची स्वाभाविक गती ईश्वराकडेच आहे. जशी नदीची गती समुद्राकडे असते. ॥२५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अग्ने=सर्वगत देव ! ममोपासकस्य । वाश्रासः=कामयमानाः । गिरः=वचनानि स्तोत्ररूपाणि वा । स्वभावतः । धृतव्रताय=दृढनियमाय । ते । ईरते=त्वामुद्दिश्य प्रवर्तन्ते । अत्र दृष्टान्तः=समुद्रायेव सिन्धवः=यथा नद्यः समुद्रमभिगच्छन्ति ॥२५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वगत सर्वव्यापी देव ! मुझ उपासक के (वाश्रासः) इच्छुक या स्थिर (गिरः) वचन (ते) आपकी ओर (ईरते) दौड़ते हैं, जिस आप ने (धृतव्रताय) जगत् के कल्याण के लिये सुदृढ़तर नियम स्थापित किए हैं । यहाँ दृष्टान्त देते हैं (इव) जैसे (सिन्धवः) नदियाँ (समुद्राय) समुद्र की ओर दौड़ती हैं, तद्वत् मेरी वाणी.... ॥२५ ॥

    भावार्थ

    यह शरीरस्थ जीव ईश्वर का सखा और सेवक है, यह अपने स्वामी का महान् ऐश्वर्य्य चिरकाल से देखता आता है । यद्यपि शरीरबद्ध होने से कुछ काल के लिये यह स्वामी से विमुख हो रहा है, तथापि इसकी स्वाभाविकी गति ईश्वर की ओर ही है, जैसे नदियों की गति समुद्र की ओर है ॥२५ ॥

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    विषय

    स्तुत्य प्रभु।

    भावार्थ

    ( धृत-व्रताय समुद्राय सिन्धवः इव ) जल को धारण करने वाले समुद्र को प्राप्त होने के लिये जिस प्रकार नदी वेग से (ईरते) चलती हैं उसी प्रकार हे ( अग्ने ) ज्ञानस्वरूप (घृत-व्रताय) व्रतों कर्मों के धारक (ते) तेरे लिये ही ( वाश्रासः गिरः ) शब्दमय वाणियां (ईरते) निकलती हैं। तेरी स्तुतियां अनायास हृदय में उठती हैं। इति चत्वारिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    अनायास [स्वाभाविक] स्तवन

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (धृतव्रताय) = सब व्रतों का धारण करनेवाले (ते) = तेरे लिए (वाश्रासः) = आपके गुणों व कर्मों का प्रतिपादन करनेवाली (गिरः) = स्तुतिवाणियाँ (ईरते) = इस प्रकार प्रेरित होती हैं, (इव) = जैसे (सिन्धवः) = नदियाँ (समुद्राय) = समुद्र के लिए।

    भावार्थ

    भावार्थ- एक स्तोता कहता है कि हे प्रभो! आपकी स्तुतियाँ अनायास ही मेरे हृदय में उठती समुद्र की ओर जाने के स्वभाववाली हैं। मैं स्तुति के स्वभाववाला ही हो जाता हूँ, जैसे नदियाँ होती हैं।

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