ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 4
उत्ते॑ बृ॒हन्तो॑ अ॒र्चय॑: समिधा॒नस्य॑ दीदिवः । अग्ने॑ शु॒क्रास॑ ईरते ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ते॒ । बृ॒हन्तः॑ । अ॒र्चयः॑ । स॒म्ऽइ॒धा॒नस्य॑ । दी॒दि॒ऽवः॒ । अग्ने॑ । शु॒क्रासः॑ । ई॒र॒ते॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्ते बृहन्तो अर्चय: समिधानस्य दीदिवः । अग्ने शुक्रास ईरते ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ते । बृहन्तः । अर्चयः । सम्ऽइधानस्य । दीदिऽवः । अग्ने । शुक्रासः । ईरते ॥ ८.४४.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 36; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, lord of light and fire, kindled, fed and rising, your lofty and expansive flames, shining and blazing, pure, powerful and purifying, go on rising higher and higher.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर सर्वात व्याप्त होऊन स्वतेजाने सर्वांना प्रदीप्त करत आहे. अग्नी व सूर्यात त्याचीच दीप्ती आहे. पृथ्वीवर त्याच्या शक्तीनेच सर्व वस्तू उत्पन्न होत आहेत. वायूत त्याची गती आहे. त्या अनंत ईश्वराची उपासना करा. ज्यामुळे हे माणसांनो! तुमचे कल्याण व्हावे. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे दीदिवः=जगतः स्वभाससा दीपयितः ! हे अग्ने सर्वाधार ईश ! समिधानस्य=सम्यक् सर्वत्र दीप्यमानस्य । ते=तव । बृहन्तः=महान्तः । शुक्रासः=शुक्राः । शुचयः । अर्चयः=सूर्य्यादिरूपा दीप्तयः । उदीरते=ऊर्ध्वं प्रसरन्ति ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(दीदिवः) हे समस्त जगत् को स्वतेज से प्रदीप्त करनेहारा (अग्ने) हे सर्वाधार महेश ! (समिधानस्य) सम्यक् सर्वत्र देदीप्यमान (ते) तेरी (बृहन्तः) महान् और (शुक्रासः) शुचि (अर्चयः) सूर्य्यादिरूप दीप्तियाँ (उदीरते) ऊपर-ऊपर फैल रही हैं ॥४ ॥
भावार्थ
ईश्वर सबमें व्यापक होकर स्वतेज से सबको प्रदीप्त कर रहा है । अग्नि और सूर्य्यादिक में उसी की दीप्ति है, पृथिवी में उसकी शक्ति से सर्व वस्तु उत्पन्न हो रही हैं । वायु में उसकी गति है । इस अनन्त ईश्वर की उपासना करो, जिससे हे मनुष्यों ! तुम्हारा कल्याण हो ॥४ ॥
विषय
अग्नि और सूर्यवत् ऊर्ध्वरेता तेजस्वी का वर्णन।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! तपस्विन् ! हे ( दीदिवः ) कान्ति युक्त ! हे उज्वल चरित्र, जिस प्रकार (समिधानस्य बृहन्तः शुक्रासः अर्चयः उत् ईरते ) अच्छी प्रकार प्रदीप्त हुए अग्नि की बहुत बड़ी, २ प्रदीप्त ज्वालाएं ऊपर उठती हैं और जिस प्रकार सूर्य की उज्ज्वल कान्तियें ऊपर को उठती हैं और जिस प्रकार ( शुक्रासः उत् ईरते ) पृथिवीस्थ जल भी ऊपर को उठते हैं उसी प्रकार ( समिधानस्य ) अति तेजस्वी ( ते ) तेरे (बृहन्तः) प्रवृद्ध (अर्चयः) उत्तम कान्तिएं और ( शुक्रासः ) शुक्र अर्थात् वीर्य ( उत् ईरते ) ऊपर मस्तक की ओर जाते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'बृहन्तः शुक्रासः ' अर्चयः
पदार्थ
[१] हे (दीदिवः) = प्रकाशमय प्रभो ! (समिधानस्य) = हृदय देश में समिद्ध किये जाते हुए (ते) = आपके (बृहन्तः) = वृद्धि की कारणभूत (अर्चयः) = ज्ञानज्वालाएँ (उद् ईरते) = उद्गत होती है। हृदय में प्रभु का ध्यान करने पर हृदय ज्ञानज्वालाओं से उज्ज्वल हो उठता है। [२] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! आपके उपासन से (शुक्रासः) = चमकती हुई ज्ञानदीप्तियाँ उद्गत होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ - हृदय में प्रभु का ध्यान हृदय को ज्ञानदीप्तियों से उज्ज्वल कर देता है।
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