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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 9
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    स॒मि॒धा॒न उ॑ सन्त्य॒ शुक्र॑शोच इ॒हा व॑ह । चि॒कि॒त्वान्दैव्यं॒ जन॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स॒म्ऽइ॒धा॒नः । ऊँ॒ इति॑ । स॒न्त्य॒ । शुक्र॑ऽशोचे । इ॒ह । आ । व॒ह॒ । चि॒कि॒त्वान् । दैव्य॑म् । जन॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समिधान उ सन्त्य शुक्रशोच इहा वह । चिकित्वान्दैव्यं जनम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम्ऽइधानः । ऊँ इति । सन्त्य । शुक्रऽशोचे । इह । आ । वह । चिकित्वान् । दैव्यम् । जनम् ॥ ८.४४.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 37; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Excellent and benevolent Agni, bright and gracious of pure and powerful flame, all knowing and illuminating, pray bring here on the vedi pious people of divine generosity and intellectual brilliance.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    माणसाने प्रथम स्वत:ला शुद्ध, सत्य व उदार बनवावे, त्यानंतर ईश्वराजवळ प्रार्थना करावी. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे सन्त्य ! भजनीय ! सेवनीय ! हे शुक्रशोचे ! पवित्रदीप्ते परमात्मन् ! समिधान उ=दीप्यमान एव त्वम् । इह=ममोचितमभीष्टमावह=आनय । यतस्त्वम् इमं दैव्यं त्वत्सम्बन्धिनं जनं चिकित्वान् जानन् वर्तसे मां त्वं जानासि अतो मह्यमभीष्टं देहीत्यर्थः ॥ ॥९

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (सन्त्य) हे संभजनीय हे सेवनीय (शुक्रशोचे) हे पवित्रदीप्ते परमात्मन् ! तू (समिधानः+उ) सम्यक् दीप्यमान होता हुआ मेरे योग्य अभीष्ट (इह) मेरे निकट ला, क्योंकि तू (दैव्यम्+जनम्) इस अपने सम्बन्धी जन को (चिकित्वान्) जानता हुआ है । अर्थात् तू मुझको जानता है, अतः मेरे कल्याण का वाहक बन ॥९ ॥

    भावार्थ

    मनुष्य प्रथम अपने को शुद्ध सत्य और उदार बनावे, तब ईश्वर के निकट याचना करे ॥९ ॥

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    विषय

    यज्ञ का नेता अग्नि।

    भावार्थ

    हे ( सन्त्य ) आदरसत्कार, सत्संगादि से सेवने योग्य ! हे ( शुक्र-शोचे ) शुद्ध कान्तियुक्त ! वीर्य की उज्ज्वल कान्ति से युक्त ब्रह्मचारिन् ! तू ( चिकित्वान् ) विद्वान् होकर (सम्-इधान:) अग्निवत् देदीप्यमान होकर ( दैव्यं जनं ) उत्तम विद्वान् जनों को ( इह आ वह यहां प्राप्त करा।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    'संभजनीय व उज्ज्वल ज्ञानदीप्तिवाले' प्रभु

    पदार्थ

    [१] हे (सन्त्य) = संभजनीय, (शुक्रशोचे) = देदीप्यमान ज्ञानदीप्तिवाले प्रभो ! (समिधानः उ) = हृदयदेश में समिध्यमान होते हुए ही (चिकित्वान्) = ज्ञानी आप (इह) = इस जीवनयज्ञ में (दैव्यं जनं) = देव की ओर जा रहे मनुष्य को [प्रभु के उपासक को] (आवह) = प्राप्त कराइए। [२] प्रभु की कृपा से हमारा सम्पर्क दिव्य प्रवृत्तिवाले लोगों से हो। इनके सम्पर्क में हम प्रभु के संभजनवाले, उज्ज्वल ज्ञानदीप्तिवाले बनेंगे और इस प्रकार यह जीवनयज्ञ बड़ी सुन्दरता से पूर्ण होगा।

    भावार्थ

    भावार्थ:- सत्संग से हम प्रभु के उपासक व उज्ज्वल ज्ञानदीप्तिवाले बनें। इस प्रकार इस जीवनयज्ञ को पवित्रता से पूर्ण करें।

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