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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 15
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    यो अ॒ग्निं त॒न्वो॒३॒॑ दमे॑ दे॒वं मर्त॑: सप॒र्यति॑ । तस्मा॒ इद्दी॑दय॒द्वसु॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । अ॒ग्निम् । त॒न्वः॑ । दमे॑ । दे॒वम् । मर्तः॑ । स॒प॒र्यति॑ । तस्मै॑ । इत् । दी॒द॒य॒त् । वसु॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो अग्निं तन्वो३ दमे देवं मर्त: सपर्यति । तस्मा इद्दीदयद्वसु ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । अग्निम् । तन्वः । दमे । देवम् । मर्तः । सपर्यति । तस्मै । इत् । दीदयत् । वसु ॥ ८.४४.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 15
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 38; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Whoever the mortal that offers devotion to self- refulgent Agni within his yajnic home of the body, the lord would bless him with the wealth of spiritual illumination.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    मनुष्य मिथ्याज्ञानामुळे नाना प्रकारच्या तीर्थात जाऊन त्याची पूजा करतो व समजतो की, या स्थानी तो पूज्य इष्टदेव साक्षात विराजमान आहे. ज्याच्या दर्शनाने संपूर्ण पाप नाहीसे होत, हा मिथ्या भ्रम आहे. हे माणसांनो! तो (ईश्वर) सर्वत्र आहे (आपले हृदय पवित्र करून त्यालाच शुद्ध मंदिर मानून तेथे त्याची पूजा करा). ॥१५॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    यो मर्त्त उपासकः । तन्वः=शरीरस्य । दमे=गृहे । अग्निं देवम् । सपर्य्यति=पूजयति । तस्मै इत्=तस्मै एव । सोऽपि वसु=अभीष्टं धनम् । दीदयत्=ददाति ॥१५ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (यः+मर्तः) जो मरणशील उपासक (तन्वः) शरीर के (दमे) गृह में अर्थात् शरीररूप गृह में (अग्निम्+देवम्) सर्वाधार अग्निवाच्य महादेव की (सपर्य्यति) पूजा करता है, (तस्मै+इत्) उसी को परमात्मा प्रसन्न होकर (वसु) अभीष्ट धन (दीदयत्) देता है ॥१५ ॥

    भावार्थ

    मनुष्य मिथ्या ज्ञान के कारण नाना तीर्थों में जाकर उसकी पूजा करता है और समझता है कि इन स्थानों में वह पूज्य इष्टदेव साक्षात् विराजमान है, जिसके दर्शन पूजन आदि से निखिल पाप छूटते हैं, यह मिथ्या भ्रम है । हे मनुष्यों ! यह सर्वत्र है । अपने हृदय को पवित्र कर उसी को शुद्ध मन्दिर मान वहाँ ही उसकी पूजा करो ॥१५ ॥

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    विषय

    ब्रह्मचारी विद्वान् अग्नि।

    भावार्थ

    ( यः मर्त्तः ) जो मनुष्य ( दमे ) गृह में अथवा ( तन्वः दमे ) शरीर के अंगों को दमन करने के लिये (अग्निं देवं ) अग्निवत् तेजस्वी, ज्ञानप्रकाशक, ( देवं ) ज्ञानी, दाता, विद्वान् और प्रभु की ( सपर्यति ) सेवा शुश्रूषा करता है ( तस्मै इत् ) उसी के लिये वह ( वसु दीदयत् ) ज्ञानमय धन का प्रदान करता है। इत्यष्टात्रिंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    तस्मा इद् दीदयद् वसु

    पदार्थ

    (यः) = जो (मर्तः) = मनुष्य (देवं अग्निं) = उस प्रकाशमय अग्रणी प्रभु को (तन्वः दमे) = इस शरीर घर में, अर्थात् शरीररूप गृह में (सपर्यति) = पूजता है, (तस्मा) = उसके लिए (इत्) = निश्चय से वे (वसु) = निवास के लिए आवश्यक धनों को (दीदयत्) = देते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ:- प्रभु उपासक के लिए आवश्यक धनों को प्राप्त कराते ही हैं।

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