ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 18
ईशि॑षे॒ वार्य॑स्य॒ हि दा॒त्रस्या॑ग्ने॒ स्व॑र्पतिः । स्तो॒ता स्यां॒ तव॒ शर्म॑णि ॥
स्वर सहित पद पाठईशि॑षे । वार्य॑स्य । हि । दा॒त्रस्य॑ । अ॒ग्ने॒ । स्वः॑ऽपतिः । स्तो॒ता । स्या॒म् । तव॑ । शर्म॑णि ॥
स्वर रहित मन्त्र
ईशिषे वार्यस्य हि दात्रस्याग्ने स्वर्पतिः । स्तोता स्यां तव शर्मणि ॥
स्वर रहित पद पाठईशिषे । वार्यस्य । हि । दात्रस्य । अग्ने । स्वःऽपतिः । स्तोता । स्याम् । तव । शर्मणि ॥ ८.४४.१८
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 18
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 39; मन्त्र » 3
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 39; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, you are the lord and protector of the peace and bliss of heaven. You rule over the wealth, honour and excellence of the world. I pray that I may adore and celebrate your divine glory and abide in heavenly peace and joy under your divine protection.
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वर सुख व प्रकाशाचा अधिपती आहे व धनाचाही स्वामी आहे. त्यासाठी हे माणसांनो! त्यालाच शरण जा. त्याचे कीर्तिगान गात स्तुतिपाठक व विद्वान बना. ॥१८॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे अग्ने परमात्मन् ! हि=यतस्त्वम् । स्वर्पतिः=स्वः सुखस्य प्रकाशस्य च पतिरसि । त्वम् । वार्य्यस्य=वरणीयस्य । दात्रस्य=दातव्यस्य धनस्य । ईशिषे=ईश्वरोऽसि । अतः हे भगवन् ! तव शर्मणि । स्तोता स्याम् ॥१८ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(अग्ने) हे परमात्मन् ! (हि) जिस कारण तू (स्वर्पतिः) सुख और ज्योति का अधिपति है और (वार्यस्य) वरणीय सुखकारक (दात्रस्य) दातव्य धन का (ईशिषे) ईश्वर है, अतः हे भगवन् ! मैं (तव+शर्मणि) तुझमें कल्याणरूप शरण पाकर (स्तोता+स्याम्) स्तुति पाठक बनूँ ॥१८ ॥
भावार्थ
जिस कारण वह ईश्वर सुख और प्रकाशक अधिपति है और धनों का भी वही स्वामी है, अतः हे मनुष्यों ! उसी की शरण लो । उसी की कीर्ति गाते हुए स्तुति पाठक और विद्वान् बनो ॥१८ ॥
विषय
ज्ञानी, स्तुतियोग्य प्रभु।
भावार्थ
( हि ) क्योंकि हे ( अग्ने ) तेजस्विन् ! तू ( स्वः पतिः ) समस्त सुखों का पालक, स्वामी है और तू ही ( वार्यस्य दात्रस्य ) वरण करने योग्य श्रेष्ठ दातव्य धन का भी ( ईशिषे ) स्वामी है, अतः मैं (शर्मणि) सुखमय शरण में रहकर ( तव स्तोता स्याम् ) तेरी स्तुति करने वाला होऊं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु की शरण में
पदार्थ
[१] हे (अग्ने) = परमात्मन् ! आप (हि) = निश्चय से (वार्यस्य) = वरणीय (दात्रस्य) = दातव्य धन के (ईशिषे) = ईश हैं। आप ही सबके लिए वरणीय धनों को प्राप्त कराते हैं। हे अग्ने ! आप (स्वः पतिः) = प्रकाश के स्वामी हैं- प्रकाश के द्वारा सुख के रक्षक हैं। [२] (स्तोता) = आपका स्तवन करनेवाला मैं (तव शर्मणि) = आपकी शरण में (स्याम्) = सदा होऊँ। आपकी छत्र-छाया मुझे सदा प्राप्त हो।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ही वरणीय धनों को देते हैं। प्रभु ही प्रकाश व सुख के रक्षक हैं। स्तोता को सदा प्रभु की शरण प्राप्त होती है।
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