ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 14
स नो॑ मित्रमह॒स्त्वमग्ने॑ शु॒क्रेण॑ शो॒चिषा॑ । दे॒वैरा स॑त्सि ब॒र्हिषि॑ ॥
स्वर सहित पद पाठसः । नः॒ । मि॒त्र॒ऽम॒हः॒ । त्वम् । अग्ने॑ । शु॒क्रेण॑ । शो॒चिषा॑ । दे॒वैः । आ । स॒त्सि॒ । ब॒र्हिषि॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स नो मित्रमहस्त्वमग्ने शुक्रेण शोचिषा । देवैरा सत्सि बर्हिषि ॥
स्वर रहित पद पाठसः । नः । मित्रऽमहः । त्वम् । अग्ने । शुक्रेण । शोचिषा । देवैः । आ । सत्सि । बर्हिषि ॥ ८.४४.१४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 14
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 38; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Agni, greatest friend of humanity, with pure and purifying flames of fire, you sit on our holy seats of grass on the vedi alongwith the divinities. (All our senses and mind are suffused with the presence of divinity.)
मराठी (1)
भावार्थ
ईश्वराला हृदयात धारण करून ध्यान करावे व इंद्रियांना प्रथम वशमध्ये करून त्याची मनाने स्तुती करावी (देव शब्द इन्द्रियवाचक आहे. हे प्रसिद्ध आहे). ॥१४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे मित्रमहः=मित्रैर्जीवैः पूजनीय अग्ने ईश ! शुक्रेण=शुद्धेन । शोचिषा=तेजसा युक्तः । स त्वम् । देवैरस्माकमिन्द्रियैः सह । नोऽस्माकम् । बर्हिषि=हृदयासने । आ सत्सि=आसीद=उपविश ॥१४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
(मित्रमहः) हे मित्रभूत जीवों से सुपूज्य (अग्ने) महेश ! (शुक्रेण) शुद्ध (शोचिषा) तेज से युक्त (सः+त्वम्) वह तू (देवैः) हमारे इन्द्रियों के साथ (नः) हमारे (बर्हिषि) हृदयासन पर (आसत्सि) बैठ ॥१४ ॥
भावार्थ
ईश्वर को हृदय में बैठाकर ध्यान करे और इन्द्रियों को प्रथम वश कर उसकी स्तुति मन से करे ॥१४ ॥
टिप्पणी
देव−इन्द्रियवाचक देव शब्द है, यह प्रसिद्ध है ॥१४ ॥
विषय
नायक अग्नि।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्रणी नायक ! ( त्वम् ) तू ( मित्रमहः ) मित्रों का आदर करने वाला और मित्रों से स्वयं पूजित होकर ( शुक्रेण शोचिषा ) उज्ज्वल कान्ति से युक्त होकर (नः) हमारे (बर्हिषि) वृद्धिशील और उत्तमासन पर ( देवै: ) विद्वान् विजय के इच्छुक पुरुषों सहित ( आ सत्सि ) आदरपूर्वक प्रतिष्ठित हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
'मित्रमहा: ' अग्नि
पदार्थ
हे (मित्रमहः) = प्रमीति [मृत्यु] से बचानेवाले तेजवाले (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (सः त्वम्) = वे आप (शुक्रेण शोचिषा) = बड़ी उज्ज्वल ज्ञानदीप्ति के साथ तथा (देवैः) = दिव्य गुणों के साथ (नः) = हमारे (बर्हिषि) = हृदयान्तरिक्ष में (आसत्सि) = आसीत होइए।
भावार्थ
भावार्थ:- प्रभु की कृपा से हमें ज्ञान व दिव्य गुण प्राप्त हों। प्रभु का तेज हमें मृत्यु से बचानेवाला हो ।
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