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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 29
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - ककुम्मतीगायत्री स्वरः - षड्जः

    धीरो॒ ह्यस्य॑द्म॒सद्विप्रो॒ न जागृ॑वि॒: सदा॑ । अग्ने॑ दी॒दय॑सि॒ द्यवि॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    धीरः॑ । हि । असि॑ । अ॒द्म॒ऽसत् । विप्रः॑ । न । जागृ॑विः । सदा॑ । अग्ने॑ । दी॒दय॑सि । द्यवि॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    धीरो ह्यस्यद्मसद्विप्रो न जागृवि: सदा । अग्ने दीदयसि द्यवि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    धीरः । हि । असि । अद्मऽसत् । विप्रः । न । जागृविः । सदा । अग्ने । दीदयसि । द्यवि ॥ ८.४४.२९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 29
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 41; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, you are magnanimous as a vibrant sage at peace, ever awake in the heart’s core in the soul, and you shine refulgent on the highest heaven in the celebrant’s meditation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! जो तुमच्या कल्याणासाठी सदैव जागृत असतो त्याच्या आज्ञेने वागा. ॥२९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे अग्ने=सर्वगत देव ! हि=यस्माद्धेतोः । त्वं धीरोऽसि । त्वम् । अद्म=सदसि=सर्वेषां हृदयसद्मनिवासी वर्तसे । न चार्थः । पुनः । विप्रः=विशेषेण मनोरथप्रपूरकः । पुनः । सदा जागृविः=भुवनानां हितकरणे जागरूकः । हे देव ! ईदृशस्त्वम् । द्यवि=द्योतनात्मके स्थाने । दीदयसि=दीप्यसे अतस्त्वां स्तौमि ॥२९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वगतदेव ! (हि) जिस कारण तू (धीरः+असि) धीर गम्भीर है, (अद्मसद्) सबके हृदयरूप गृह में निवासी है (न) और (विप्रः) विशेषरूप से मनोरथ पूर्ण करनेवाला है तथा (सदा) सर्वदा (जागृविः) भुवन के हित के लिये जागरणशील है । हे देव ! (द्यवि) प्रकाशमय स्थान में तू (दीदयसि) दीप्यमान हो रहा है, अतः तुझको प्रत्यक्षवत् देखकर मैं गाता हूँ ॥२९ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! जो तुम्हारे कल्याण के लिये सदा जागृत है, उसकी आज्ञा में चलो ॥२९ ॥

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    विषय

    ब्रह्माण्डदीपक प्रभु।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) प्रकाशस्वरूप ! तू ( विप्रः न ) विद्वान् पुरुष के समान ( धीरः हि असि ) कर्मों, ज्ञानों, और बुद्धियों का प्रेरक, (अद्म-सत् ) समस्त भोग्य ऐश्वर्यमय ब्रह्माण्ड में, गृह में दीपकवत् विराजमान ( सदा जागृविः ) सदा जागरणशील है। तू ( द्यवि ) आकाश में सूर्यवत् ( दीदयसि ) प्रकाश करता है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    सदा जागृविः

    पदार्थ

    [१] हे प्रभो! आप (हि) = निश्चय से (धीर असि) = [धियं राति] हमारे लिए बुद्धि को देनेवाले हैं। (अद्म सत्) = हमारे इस शरीररूप गृह में रहनेवाले हैं। (विप्रः न) = हमारा विशेषरूप से पूरण करनेवाले के समान (जागृविः सदा) = सदा जागरणशील हैं। हमारी न्यूनताओं को दूर करने में सदा तत्पर हैं। [२] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो! आप (द्यवि) = अपने प्रकाशमय स्वरूप में (दीदयसि) = सदा दीप्त हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु-स्तवन करते हुए हम बुद्धि सम्पन्न होकर अपने में प्रकाश को बढ़ानेवाले हों।

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