ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 20
अद॑ब्धस्य स्व॒धाव॑तो दू॒तस्य॒ रेभ॑त॒: सदा॑ । अ॒ग्नेः स॒ख्यं वृ॑णीमहे ॥
स्वर सहित पद पाठअद॑ब्धस्य । स्व॒धाऽव॑तः । दू॒तस्य॑ । रेभ॑तः । सदा॑ । अ॒ग्नेः । स॒ख्यम् । वृ॒णी॒म॒हे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अदब्धस्य स्वधावतो दूतस्य रेभत: सदा । अग्नेः सख्यं वृणीमहे ॥
स्वर रहित पद पाठअदब्धस्य । स्वधाऽवतः । दूतस्य । रेभतः । सदा । अग्नेः । सख्यम् । वृणीमहे ॥ ८.४४.२०
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 20
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 39; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 39; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
We choose, claim and pray for the love and friendship of Agni, indestructible and benevolent, inherently powerful, bearer and dispenser of energy, light and wisdom, and omniscient lord of speech.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! त्या परमेश्वराबरोबर मैत्री करा, ज्यामुळे तुमचे परम कल्याण होईल. ज्याचे अस्तित्व सदैव सर्वव्यापक असते. ॥२०॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
वयम् । अग्नेः=परमात्मनः । सख्यं=मैत्रीम् । सदा । वृणीमहे=कामयामहे । कीदृशस्य अदब्धस्य=अहिंसितस्य अविनश्वरस्य । पुनः । स्वधावतः=प्रकृतिमतः= प्रकृतिधारकस्य । पुनः । दूतस्य=निखिलदुःखनिवारकस्य । पुनः । रेभतः=महाकवीश्वरस्य ॥२० ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हम उपासकगण (अग्नेः) उस परमात्मा की (सख्यम्) मित्रता को (सदा) सर्वदा (वृणीमहे) चाहते हैं, जो ईश्वर (अदब्धस्य) अविनश्वर और शाश्वत है (स्वधावतः) प्रकृतिधारक है (दूतस्य) निखिलदुःखनिवारक है और (रेभतः) जो महाकवीश्वर है ॥२० ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! उस परमात्मा के साथ मित्रता करो, जिससे तुम्हारा परम कल्याण होगा । जो सदा रहनेवाला है ॥२० ॥
विषय
ज्ञानी, स्तुतियोग्य प्रभु।
भावार्थ
( अदब्धस्य ) विनाशरहित, ( स्वधावतः ) स्वयं जगत् को धारण करने वाली शक्ति से युक्त ( दूतस्य ) दुष्टों को संताप देने वाले, ( रेभतः ) ज्ञान का उपदेश देने वाले, ( अग्नेः ) तुझ तेजस्वी, ज्ञानी पुरुष के ( सख्यं ) मैत्रीभाव की हम (सदा वृणीमहे) सदा याचना करें। इत्येकोनचत्वारिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु की मित्रता में
पदार्थ
[१] हम (अग्नेः) = उस अग्रणी प्रभु की (सख्यं) = मित्रता को (वृणीमहे) = वरते हैं। प्रभु की मित्रता ही वास्तविक मित्रता है। [२] उस प्रभु की मित्रता को हम (सदा) = सदा वरते हैं जो (अदब्धस्य) = अहिंसित हैं, (स्वधावतः) = आत्म धारणशक्तिवाले हैं-किसी अन्य से प्रभु का धारण नहीं होता, (दूतस्य) = जो ज्ञान का सन्देश प्राप्त करानेवाले हैं तथा (रेभतः) = ' ऋग्, यजु, साम' रूप तीनों वाणियों का उच्चारण करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभु की मित्रता का वरण करें। इस मित्रता से हम काम-क्रोध आदि से हिंसित न होंगे, अपना धारण स्वयं कर पाएँगे, तथा प्रभु के ज्ञान-सन्देश को सुन पाएँगे। हमारा जीवन 'ज्ञान-कर्म-उपासना' से युक्त होगा।
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