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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 17
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    उद॑ग्ने॒ शुच॑य॒स्तव॑ शु॒क्रा भ्राज॑न्त ईरते । तव॒ ज्योतीं॑ष्य॒र्चय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उत् । अ॒ग्ने॒ । शुच॑यः । तव॑ । शु॒क्राः । भ्राज॑न्तः । ई॒र॒ते॒ । तव॑ । ज्योतीं॑षि । अ॒र्चयः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उदग्ने शुचयस्तव शुक्रा भ्राजन्त ईरते । तव ज्योतींष्यर्चय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत् । अग्ने । शुचयः । तव । शुक्राः । भ्राजन्तः । ईरते । तव । ज्योतींषि । अर्चयः ॥ ८.४४.१७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 17
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 39; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, light and life of the world, your fires and flames, lights and lightnings, pure, white and undefiled, shine and radiate all over spaces.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे माणसांनो! ईश्वराचे तेज पाहा. सूर्य त्याची ज्वाला आहे. तुम्ही स्वत: त्याची ज्योती आहात. ज्याच्यात सर्वज्ञान भरलेले आहे ती मानवजात कशी भटकत आहे. ॥१७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    अग्ने ! तव । शुचयः=शुद्धाः । शुक्राः=शुक्लवर्णाः । तथा भ्राजन्तो दीप्यमानाः । अर्चयः । उदीरते=ऊर्ध्वं गच्छन्ति । हे भगवन् ! तव तेजांसि सर्वत्र प्रसरन्ति ॥१७ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (अग्ने) हे सर्वशक्ति सर्वगतिप्रद ईश ! (तव) तेरी (अर्चयः) सूर्य्यादिरूप ज्वालाएँ (उद्+ईरते) ऊपर फैलती हैं, जो (शुचयः) परम पवित्र हैं (शुक्राः) शुक्ल हैं (भ्राजन्तः) सर्वत्र दीप्यमान हो रही हैं । हे भगवन् ! (तव+ज्योतींषि) आपके तेज सर्वत्र फैल रहे हैं ॥१७ ॥

    भावार्थ

    हे मनुष्यों ! ईश्वर का तेज देखो । सूर्य्य उसकी ज्वाला है । तुम स्वयं उसके ज्योति हो । जिसमें सर्वज्ञान भरा हुआ है, वह मानवजाति किस प्रकार भटक रही है ॥१७ ॥

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    विषय

    ज्ञानी, स्तुतियोग्य प्रभु।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) विद्वन् ! ( तव शुचयः ) तेरे शुद्ध चरित्र, ( शुक्रा: ) जलों या तेजों के समान ( उत् ईरते ) शुद्ध रूप से प्रकट होते हैं और ( तव ज्योतींषि ) तेरे तेज, ( तव अर्चयः ) तेरे आदरसत्कार भी अग्नि के प्रकाश में और ज्वालाओं के समान (उत् ईरते) उत्तम रीति से प्रकट होते हैं।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥

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    विषय

    ज्ञानज्वाला+तेजस्विता

    पदार्थ

    [१] हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (तव) = आपकी (शुचयः) = पवित्र (शुक्राः) = दीप्त (अर्चयः) = ज्ञान- ज्वालाएँ (भ्राजन्तः) = चमकती हुईं तब (ज्यतेती षि) = तेरी ज्योतियों को तेजस्विताओं को (उदीरते) = उद्गत करती हैं। [२] जब हम प्रभु की उपासना करते हैं, तो हमारे जीवनों में प्रभु की ज्ञानज्योतियाँ व तेजस्विताएँ चमक उठती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- उपासक के जीवन में प्रभु की पवित्र ज्ञानज्वालाएँ व तेजस्विता में चमक आती हैं।

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