Loading...
ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 44 के मन्त्र
मण्डल के आधार पर मन्त्र चुनें
अष्टक के आधार पर मन्त्र चुनें
  • ऋग्वेद का मुख्य पृष्ठ
  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 28
    ऋषिः - विरूप आङ्गिरसः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    अ॒यम॑ग्ने॒ त्वे अपि॑ जरि॒ता भू॑तु सन्त्य । तस्म॑स पावक मृळय ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒यम् । अ॒ग्ने॒ । त्वे इति॑ । अपि॑ । ज॒रि॒ता । भू॒तु॒ । स॒न्त्य॒ । तस्मै॑ । पा॒व॒क॒ । मृ॒ळ॒य॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अयमग्ने त्वे अपि जरिता भूतु सन्त्य । तस्मस पावक मृळय ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अयम् । अग्ने । त्वे इति । अपि । जरिता । भूतु । सन्त्य । तस्मै । पावक । मृळय ॥ ८.४४.२८

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 28
    अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 41; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Agni, lord of light and life, may this celebrant be spontaneous and profuse in praise of you and, O fiery purifier, may you too be kind and gracious to him.

    मराठी (1)

    भावार्थ

    ईश्वर विन्मुख मानवी समाजाला पाहून विद्वानांनी हा प्रयत्न केला पाहिजे की, लोकांनी उच्छृंखल, नास्तिक व उपद्रवकारी बनता कामा नये. कारण त्यामुळे त्यांच्याकडून जगाचे नुकसान होते. जसे राजनियमांना कार्यात आणण्यासाठी प्रथम अनेक उद्योग करावे लागतात, त्याप्रमाणे धार्मिक नियमांसाठीही करावे लागतात. ॥२८॥

    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे सन्त्य ! साधो सर्वत्र विद्यमान अग्ने सर्वगतदेव ! अयं मनुष्यः । त्वे अपि=त्वदभिमुखीनः । भूतु=भवतु । तथा तवैव जरिता स्तोताऽपि भवतु । हे पावक=परमपवित्र ! तस्मै जनाय । मृळय=सुखय=सुखीकुरु ॥२८ ॥

    हिन्दी (1)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (सन्त्य) हे सबमें विद्यमान साधो (अग्ने) परमात्मन् ! (अयम्) यह मनुष्यसमाज, जो आपसे विमुख हो रहा है, (त्वे+अपि) आपकी ही ओर (भूतु) होवे और आपका ही (जरिता) स्तुतिकर्ता होवे । (पावक) हे परमपवित्र देव ! (तस्मै) उस जन-समाज को (मृळय) सुखी बनाओ ॥२८ ॥

    भावार्थ

    ईश्वर-विमुख मनुष्य-समाज को देख विद्वान् को प्रयत्न करना चाहिये कि लोग उच्छृङ्खल, नास्तिक और उपद्रवकारी न होने पावें, क्योंकि उनसे जगत् की बड़ी हानि होती है । जैसे राजनियमों को कार्य्य में लाने के लिये प्रथम अनेक उद्योग करने पड़ते हैं, तद्वत् धार्मिक नियमों को भी ॥२८ ॥

    Top