ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 44/ मन्त्र 26
युवा॑नं वि॒श्पतिं॑ क॒विं वि॒श्वादं॑ पुरु॒वेप॑सम् । अ॒ग्निं शु॑म्भामि॒ मन्म॑भिः ॥
स्वर सहित पद पाठयुवा॑नम् । वि॒श्पति॑म् । क॒विम् । वि॒श्व॒ऽअद॑म् । पु॒रु॒ऽवेप॑सम् । अ॒ग्निम् । शु॒म्भा॒मि॒ । मन्म॑ऽभिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
युवानं विश्पतिं कविं विश्वादं पुरुवेपसम् । अग्निं शुम्भामि मन्मभिः ॥
स्वर रहित पद पाठयुवानम् । विश्पतिम् । कविम् । विश्वऽअदम् । पुरुऽवेपसम् । अग्निम् । शुम्भामि । मन्मऽभिः ॥ ८.४४.२६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 44; मन्त्र » 26
अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 41; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 3; वर्ग » 41; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
With my words, thoughts and reflections in meditation, I adore, adorn and exalt Agni, self-refulgent lord and leader of life, youthful creator who joins the soul and prakrti in living forms, rules and protects humanity, is the one universal poet of cosmic imagination, performs actions of infinite variety and ultimately withdraws the entire world of existence unto himself.
मराठी (1)
भावार्थ
तो परमेश्वर महान देव असून सर्वांचा अधिपती आहे. कर्ता, धर्ता, संहर्ता तोच आहे. विद्वान लोक त्याची पूजा करतात. त्याचे गान गातात. त्याच्या आज्ञेनुसार वागतात. तसेच सर्वांनी वागावे. ॥२६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
अहमुपासकः । अग्निं=सर्वगतं देवम् । मन्मभिः=मननीयैः स्तोत्रैः । शुम्भामि=शोभयामि=स्तौमीत्यर्थः । कीदृशं युवानम्=प्रकृतिजीवयोर्मिश्रयितारम् । पुनः । विश्पतिम्= विशां प्रजानां पतिम् । कविम्=कवीश्वरम् । विश्वादम्=सर्वभक्षकम्=सर्वसंहारकमित्यर्थः । पुरुवेपसम्= बहुकर्माणम् । वेशो वेप इति कर्मनामसु पठितौ ॥२६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
मैं उपासक (अग्निम्) सर्वगत महेश्वर को (मन्मभिः) मननीय स्तोत्रों से (शुम्भामि) सुभूषित करता हूँ, जो ईश (युवानम्) प्रकृति और जीवों को एक साथ मिलानेवाला है, (विश्पतिम्) समस्त प्रजाओं का एक अधिपति है, (कविम्) महाकवीश्वर है, (विश्वादम्) सबका भक्षक अर्थात् संहर्ता है, पुनः (पुरुवेपसम्) सर्वविध कर्मकारी है ॥२६ ॥
भावार्थ
वह परमात्मा महान् देव है, सबका अधिपति है, कर्त्ता, धर्ता, संहर्ता वही है । उसको जैसे विद्वान् पूजते, गाते और उसकी आज्ञा पर चलते, वैसा ही सब करें ॥२६ ॥
विषय
स्तुत्य प्रभु।
भावार्थ
मैं ( युवानं ) बलवान्, ( विश्पतिं ) प्रजाओं के पालक, ( कविं ) विद्वान् मेधावी, (विश्व-अदं) समस्त जगत् को अपने भीतर लेने वाले, ( पुरु-वेपसम्) नाना कर्म करने वाले, ( अग्निं ) तेजः स्वरूप, ज्ञान प्रकाशक प्रभु को ( मन्मभिः ) मन्त्रों से अलंकृत करता हूं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
विरूप आङ्गिरस ऋषिः॥ अग्निर्देवता॥ छन्द:– १, ३, ४, ६, १०, २०—२२, २५, २६ गायत्री। २, ५, ७, ८, ११, १४—१७, २४ निचृद् गायत्री। ९, १२, १३, १८, २८, ३० विराड् गायत्री। २७ यवमध्या गायत्री। २१ ककुम्मती गायत्री। १९, २३ पादनिचृद् गायत्री॥ त्रिंशदृचं सूक्तम्॥
विषय
अग्निं शुम्भामि मन्मभिः
पदार्थ
[१] (अग्निं) = उस अग्रणी प्रभु को (मन्मभिः) = मननीय स्तोतों से (शुम्भामि) = अपने अन्दर शोभित करता हूँ। प्रभु-स्तवन करता हुआ प्रभु के गुणों को अपने जीवन में धारण करने का प्रयत्न करता हूँ। [२] जो प्रभु (युवानं) = सब बुराइयों को पृथक् करनेवाले व अच्छाइयों को हमारे साथ जोड़नेवाले हैं। (विश्पतिम्) = सब प्रजाओं के रक्षक हैं। (कविं) = क्रान्तप्रज्ञ हैं। (विश्वादं) = सम्पूर्ण विश्व का अपने अन्दर आदान करनेवाले हैं और (पुरुवेपसम्) = पालक व पूरक कर्मों को करनेवाले हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का स्तवन करते हुए हम प्रभु के गुणों को अपने जीवन में धारण के लिए यत्नशील हों।
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