अथर्ववेद - काण्ड 13/ सूक्त 4/ मन्त्र 26
सूक्त - ब्रह्मा
देवता - अध्यात्मम्
छन्दः - आर्च्यनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
स रु॒द्रो व॑सु॒वनि॑र्वसु॒देये॑ नमोवा॒के व॑षट्का॒रोऽनु॒ संहि॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठस: । रु॒द्र: । व॒सु॒ऽवनि॑: । व॒सु॒ऽदेये॑ । न॒म॒:ऽवा॒के । व॒ष॒ट्ऽका॒र: । अनु॑ । सम्ऽहि॑त: ॥६.५॥
स्वर रहित मन्त्र
स रुद्रो वसुवनिर्वसुदेये नमोवाके वषट्कारोऽनु संहितः ॥
स्वर रहित पद पाठस: । रुद्र: । वसुऽवनि: । वसुऽदेये । नम:ऽवाके । वषट्ऽकार: । अनु । सम्ऽहित: ॥६.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 13; सूक्त » 4; मन्त्र » 26
भाषार्थ -
(सः) वह (रुद्रः) रौद्ररूप रुलाने वाला है, (वसुदेये) सम्पत्तियों के प्रदान में (वसुवनिः) सम्पत्तियों का विभाग करने वाला, (नमोवाके) "नमः" कहने (वषट्कारः) पर कष्टनाशक है, (अनु संहितः) सदा सम्यक्तया हितकारी है।
टिप्पणी -
[(रुद्रः) पापियों को, उन के कर्मों के अनुसार, रौद्ररूप में परमेश्वर, उन्हें रुला कर, सुपथ में प्रवर्तित कर उन का हित करता है। वसुवनिः= वसु + वन (संभक्तौ)। "वषट्” का प्रयोग याज्यामन्त्रों की समाप्ति पर आहुतियों के प्रदान में होता है। यह शब्द मन्त्रान्त का सूचक होते हुए यहां दुःखान्त तथा कष्टान्त का सूचक है। अथवा वषट्कारः= वष् (हिंसायाम) + अट् (गतौ) +कारः= हिंसा को विगत करने वाला। अनुसंहितः= कर्मानुसार सुख दुःख प्रदान करने से परमेश्वर सदा हित करता है। राष्ट्र में न्यायाधीश दण्डविधान द्वारा प्रजा का हित ही करते है।]।